मेरे बचपन की गलियां, थी बड़ी खुली-खुली
ट्रेन की आवाजें होती थी, मेरे मां की घंड़ी।
लिखता था तख्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही में डुबो के।
पाठशाला में जमीन पर बैठा करता था
टाट खुद ही घर से ले जाया करता था।
खट्टी-मीठी संतरे की गोली मुंह में डाल के
क से कलम, द से दवात बोला करता था।
टन-टन बजती जब पूरी छुटटी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख्ती लिए
दौड़ जाता था, शोर मचाते हुए घर के लिए।
फेंक फिर बस्ते को घर के एक कोने में
भाग जाया करता था भरी दोपहरी में,
गिल्ली-डंड़ा और कंचे खेलने के लिए।
वापिस जब आता था
कमीज की झोली कंचो से भर लाता था।
मां गुस्से में डांटती थी
सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती थी।
नलके पर हाथ मुंह धोते हुए
एक चपत भी लगा दिया करती थी।
लगा मेरी पीठ फिर दीवार पर, पढ़ने बैठा दिया करती थी
स्कूल का सारा काम अपने सामने ही करवाया करती थी।
शाम ढलती थी, रात होती थी
मां के चूल्हे में आग होती थी।
खिलाकर फिर मुझे रोटी दाल
खाट पर सुला दिया करती थी।
- सुशील छौक्कर
"दिन बचपन के कुछ बेहतरीन होते हैं, इसीलिये वक्त की आगोश में लीन होते हैं" रचना मर्म के पास होकर गुजरती है खासकर अंतिम चार लाइन कि-" शाम ढलती थी, रात होती थी......" वाली. क्योंकि वो क्षण आज गुम से गये हैं...वो सुकून, वो सुख, वो प्यारा सा अहसास और वो बेपरवाह नींद....अब कहा मौसूल भाई...। "कभी ऐसा भी कर डालिये कि चिल्ला कर दौड लगा दीजिये..सडक पर तेजी से दौडते हुए सबको हैरान कर दीजिये..घर के चबूतरे पर बैठ कर तेजी से सांस लीजिये और खुद के बचकाने पर खुल कर हंस दीजिये..., देखिये जिन्दगी भी कहेगी, मेरे दोस्त तू बूढा नहीं न ही दिन गुजरे हैं..बता मुझे जीना..कुछ पल मुझे भी दीजिये..."
ReplyDeleteहम अपने शब्दों में जी सकते हैं, बचपन को जिन्दा कर सकते हैं...तो क्यूं न करें सौशील भाई, बहुत अच्छी रचना है, पहले भी पढी थी मगर इस बार इसलिये बेहतर लग रही है कि इस बार मैं आपको भी जानता हूं....
बचपन को बखूबी बयाँ कर दिया और यादो की कुंडी खडखडा दी………………बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteहर उम्र के साथ चलना चाहिये, किसी उम्र को ढोना नहीं चाहिये।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteKYA KAHE SUSHEEL BHAI . AAPNE TO MOHALLO KI YAAD DILWA DI HAI ....
ReplyDeleteVIJAY
बचपन की यादें बहुत अच्छे से लिखी हैं ..सुन्दर प्रस्तुति
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