छोटी सी तनख़्वाह में ............
वक्त की सुईयों ने
सबकी जुबान सील दी है।
बेटी अपने फटे हुए बस्तें को छिपाते हुए
रोज स्कूल जाया करती है।
बूढे पिता चंद पैसे बचाने की ख़ातिर
कड़ी धूप में इकलौता छन्ना हुआ रुमाल सिर पर रखकर
डी.टी.सी बस का इंतजार करते मिलते हैं।
माँ, हाथों की सूखी हडिड्यों पर लटकती खाल के सहारे
दिन हो या रात इस गर्मी में बिजना(पंखा) चलाती रहती है।
पत्नी पतली सी कलाईयों में
बस एक ही रंग की दो चूड़ियाँ डाले देखती है।
इनके चेहरों पर छाई उदासी
मुझे अंदर तक तकलीफ़ देती रहती है।
और मेरी आँखे, इनकी आँखो से
मिलने से कतराती फिरती है।
इस छोटी सी तनख़्वाह में
बस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता हूँ
और जवाब के लिए दिन-भर मारा मारा फिरता हूँ।
ye kahani to kuchh apni si lagti hai..
ReplyDeletehalaaton ke upar aapne behtreen rachna likhi hai
सच में जिस तरह हालात हैं आज कल के ....आज का ही सच है ..जो भोगे वही जाने ..अच्छा लिखा आपने इस पर सुशील जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteएक कम आमदनी वाले परिवार का आज की महंगाई की मार को झेल पाना कहाँ आसान है?
ReplyDeleteबहुत अच्छा चित्रण किया है शब्दों के माध्यम से.
सामायिक विषयवस्तु लिए अच्छी कविता.
कविता का शीर्षक कविता के सार पर सटीक बैठता है.
ek sujhaav-
ReplyDeleteyah aap ki pasand wala blogvani tab -blog ke layout mein jaakar drag kar ke blog archive ke neechey rakhen to behtar hoga...:)
aaj ka katu sach kaha hai aapne.......jyadatar har ghar ke halat aise hi milenge.........bahut badhiya.
ReplyDeleteअब इस आज के सच पर आपने बोलती बंद करदी है... निशब्द कर दिया है...
ReplyDeleteसच में कितने ही परिवारों के यही हालात हैं... बहुत मार्मिक लिखा है आपने...
बहुत बेहतरीन रचना...
इसके लिए ढेर सारा शुक्रिया...
मीत
माँ, हाथों की सूखी हडिड्यों पर लटकती खाल के सहारे
ReplyDeleteदिन हो या रात इस गर्मी में बिजना(पंखा) चलाती रहती है।
पत्नी पतली सी कलाईयों में
बस एक ही रंग की दो चूड़ियाँ डाले देखती है।
लाजवाब अभिव्यक्ति .....!!
इतनी गहराई से गरीबी की मार झेलते किसी परिवार का चित्रण ....क्या कहूँ...बधाई दूँ या उस परिवार के लिए दुखित होऊं......!!
बहुत सटीक और संवेदनशील अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteरामराम.
जाने क्यों जगजीत सिंह की आवाज नेपथ्य में सुनाई दी......अब मै राशन की कतारों में नजर आता हूँ...
ReplyDeleteइस छोटी सी तनख़्वाह में
ReplyDeleteबस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता हूँ
और जवाब के लिए दिन-भर मारा मारा फिरता हूँ
आह! इस कविता में आमजन की पीड़ा साफ झलकती है।
मगर फिर भी
ReplyDeleteलाचारी होते हुए भी
बदहाली होते हुए भी
मन में एक उम्मीद रहती है
कि
एक दिन तो आएगा जब...
...
...
"हम होंगे कामयाब"
तीखा और धारदार सच।
ReplyDelete----------
किस्म किस्म के आम
क्या लडकियां होती है लडको जैसी
B_E_H_T_R_E_E_N_/
ReplyDeletesushilbhai, kyaa baat likhi he/ sach to sach he/ aour sach ka saamnaa savaal khareedne aour dinbhar maaraa maaraa firne se bhi hota he/ chhoti si tankhvaah,,,bade bade khvaab hi kyu dikhaati he????mera savaal he..///magar..jindgi chalti kaa naam gaadi he///jis tarah aapki rachna me 'kriya' pramukh he..yaani kuchh he jo chal rahaa he, jivan chal rahaa he//chhoti si tankhvaah me hi sahi/
bahut sundar rachna he/ iske liye meri aour se ek KALAM khud hi kharidkar gift maan lenaa//milne par ek shaandaar kalam byaaj sahit tohfaa baaki/
saadhuvaad/
vaqt की yantrnaa को sahte हुवे शब्द जैसे खुद-ba-खुद बोल रहे hon ......... आम आदमी का जीवन ऐसे ही prashnon का uttar aksar saari umr khojta rahta है
ReplyDeleteआप का यह आज का सच बहुत अच्छा है.. हर व्यक्ति इसी सच की स्वीकारोक्ति करेगा.. आभार
ReplyDeleteइस छोटी सी तनख़्वाह में
ReplyDeleteबस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता हूँ
और जवाब के लिए दिन-भर मारा मारा फिरता हूँ।
Atyant prabhavi abhivyakti.
मर्मभेदी अभिव्यक्ति। छोटी तनख्वाह के दर्द को बहुत सही ढंग से उकेरा है आपने। धन्यवाद।
ReplyDeleteबस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता..जवाब के लिये मारा-मारा फिरता हूँ...
ReplyDeleteअच्छी तस्वीर किंतु दहलाती हुई
घर घर की कहानी है यह .. बहुत मार्मिक पोस्ट .. अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteप्रिय सुशील /अच्छा चित्रण /बूढे पिता का कड़ी धूप में वह रुमाल सर पर डाल कर जाना जो जीर्णशीर्ण (छन्ना) हो गया है ,हमारे इधर छन्ना ही शब्द प्रयोग करते हैं / माँ की सूखी हड्डियों पर लटकती खाल /अर्थाभाव में पत्नी के चेहरे पर छाई उदासी पंखा के लिए आपने बिजन शब्द प्रयोग किया है ब्रेकिट में न लिखते तो पाठकों को बड़ी दिक्कत होतीमहाराणा प्रताप पर लिखी कवितायेँ तो आपने निश्चित पढी होंगी उसमे भी बिजन शब्द अलंकार की रूप में प्रयोग किया गया था आज तो मुझे याद नहीं पर कुछ इस तरह थी "" तीन बेर खातीं ,ते वे तीन बेर खाती हैं = बिजन डुलाती ते बे बिजन डुलाती है ""एक जगह पंखा और दूसरी जगह जंगल (बीरान) अर्थ किया गया है / आपकी कविता अच्छी लगी
ReplyDeleteatyant maarmik chitran kiya hai aapne apni kavita men
ReplyDeleteBhaai Saheb,
ReplyDeleteAapne to nishabd kar diya.
Bahut kuchh yaad aa gayaa....
Fantastic!!
~Jayant
हाथ के पंखे के लिये बीजणा शब्द तब सुनते थे जब छोटे थे और गर्मी की छ़ट्टियों में बूआ के गांव जाते थे. हमारी बूआ बीजणा ही बोलती थी. आपकी यह कविता पढ़ कर बूआ और गांव सब कुछ याद आ गया.
ReplyDeleteअच्छी रचना के लिये बधाई.
susheel ji ,
ReplyDeletemain kya kahun ..
aapne likha hi kuch aisa hi a ki man bhaari ho gaya aur aankhen bheeg uthi hai .. jeevan ki kadhvi sacchaiyaan ab apna roop dikha rahi hai .. main kya likhun.. bus bhaiyaa, jis din milonge aapke haath choom loonga is lekh ke liye..
aapka
vijay
खूबसूरत इंतख़ाब
ReplyDeleteइस छोटी सी तनख़्वाह में
ReplyDeleteबस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता हूँ
और जवाब के लिए दिन-भर मारा मारा फिरता हूँ। ....
वाह सुशील जी...बहुत उम्दा लिखते है आप....अफसोस..मैं देर से पढ पाया...
सुन्दर रचना..