प्रेम करने वाली लड़की
प्रेम करने वाली लड़की अक्सर हो जाती है खुद से गाफ़िल और दुनिया को अपने ही ढ़ग से बनाने-सँवारने की करती है कोशिश।
प्रेम करने वाली लड़की हवा में खूशबू की तरह बिखर जाना चाहती है उड़ना चाहती है स्वच्छंद पंछियों की तरह धूप सी हँसी ओढ़े।
वह लड़की भर देना चाहती है उजास चँहु ओर।
प्रेम करने वाली लड़की सोना नही, चाँदी नही,गाड़ी नही, बँगला नही।
चाहती है बस किसी ऐसे का साथ जो समझ सके उसकी हर बात और अपने प्रेम की तपिश से उसे बना दे कुंदन सा सच्चा व पवित्र।
अब वह आईना भी देखती है तो किसी दूसरे की नजर से परखती है स्वंय को और अपने स्व को दे देती है तिलांजलि।
प्रेम करने वाली लड़की के पाँव किसी नाप की जूती में नही अटते, समाज के चलन से अलग होती है उसकी चाल।
माँ की आँख में अखरता है उसका रंग-ढ़ग, पिता का संदेह बढ़ता जाता है दिनों दिन और भाई की जासूस निगाहें करती रहती है पीछां ।
गाँव-घर के लोग देने लगते है नसीहतें समझाने लगते है ऊँच-नीच अच्छे-बुरे के भेद मगर प्रेम करने वाली लड़की जानना समझना चाहती है दुनिया को
और एक माँ की तरह उसे और सुंदर बनाना चाहती है ।
रचनाकार- रमण सिहँ
(यह कविता सामयिक वार्ता में छपी थी )
महेश सिँह जी( प्रबधंक संपादक सामयिक वार्ता) की अनुमति से इस प्यारी रचना की पोस्ट डाली जा रही हैं।
आजकल समय अभाव के कारण कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ इसलिए अपनी पसंद की कुछ रचनाएं डाल रहा हूँ जो पहले ही फाईल में सेव हैं।
बहुत ही सुंदर रचना आपने पढ़वाई ! इसके लिए आभार आपका !
ReplyDeleteप्रेम करने वाली लड़की हवा में खूशबू की तरह बिखर जाना चाहती है उड़ना चाहती है स्वच्छंद पंछियों की तरह धूप सी हँसी ओढ़े।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया .सही कहा .प्रेम करने वाली लड़की ऐसी ही तो होती है ....शुक्रिया इन प्यारी बातों को यहाँ देने का ...
सुशील जी, बहुत ही सुंदर रचना पढ़वाई- ये पंक्तियॉं तो लाजवाब हैं-
ReplyDeleteप्रेम करने वाली लड़की के पाँव किसी नाप की जूती में नही अटते, समाज के चलन से अलग होती है उसकी चाल।
सुब्हान अल्लाह...बहुत ख़ूब...
ReplyDeleteसुशील जी,
ReplyDeleteभाव पक्ष तो मजबूत है इस रचना का मगर..कविता, गजल, गद्य, पद्य किस लेब्ल में रखूं समझ नहीं पाया..
वैसे ऐसी लडकियां मिलती कहां हैं ? मुझे एक बहु की तलाश है :)
बहुत बेहतरीन और प्यारी रचना है ये महेश जी की..हम सब के साथ बाँट ने के लिए शुक्रिया...
ReplyDeleteनीरज
अब वह आईना भी देखती है तो किसी दूसरे की नजर से परखती है स्वंय को और अपने स्व को दे देती है तिलांजलि।
ReplyDeleteसत्य कहा.पर सच्चे प्रेम में निमग्न स्त्री हो या पुरूष दोनों की यही मनोवास्था होती है.प्रेम और समर्पण का सुंदर निरूपण किया है आपने.
bahut hi sundar bhav purn rachana
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति, सुन्दर कविता, सुन्दर भाव
ReplyDeletebahut sundar rachna padhwai aapne...shukriya.
ReplyDeleteभाई बहुत ही सुन्दर ढंग से आप ने यह रचना शव्दो मै पिरओ दी .
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी धन्यवाद
अति सुन्दर !
ReplyDeleteभाई वाह ....अपने तरह की ख़ास कविता है....कही कही रूमानी ...कही कही मध्यम वर्गीय हो जाती है....यहाँ बांटने के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteसुशील भाई इतनी सुंदर रचना पढ़वाने के लिए आपको अनेको बधाइयां !
ReplyDeletesunder likha hai
ReplyDeleterachna wakai bahut pyari hai.
ReplyDeleteऐसी सुन्दर रचना पढवाने के लिए रमण सिंह जी के साथ-साथ सुशील जी...आपको भी नमन
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