Sunday, September 21, 2008

लगता हैं तुम इंसान नहीं।

जिधर देखो इंसान के सपनों का खून हो रहा।

समझ नहीं आता कि क्यों इंसान को इंसान मार रहा। रोज ही ऐसा मंज़र देखने को मिल रहा दुनिया के अलग-अलग कोनों में। कोई मासूम सा बच्चा सवाल कर रहा। हँसती खेलती बच्ची की हँसी गायब हो गई। किसी माँ की आँखे पथरा गई रोते रोते। किसी के बुढ़ापे का सहारा छीन गया। किसी का दोस्त बिछड़ गया। इन्हीं की पुकारों को सुनकर एक तुकबंदी की थी जिसका प्रकाशन "साहित्यशिल्पी" ने किया। आप अवश्य पढ़े । आप नीचे दिये लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
एक दर्दनाक मंज़र

15 comments:

  1. यह इंसान नहीं हैं, शैतान हैं. इंसान प्रेम करता है और शैतान नफरत करता है.

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  2. इन्सान ऐसा ही होता है, आप किस ग़लतफ़हमी में हैं महाराज! जानवर सिर्फ़ भूख मिटाने या आत्मरक्षा के लिए मारता है, ये तो इन्सान ही है जो वजह बेवजह किसी को भी मारने खड़ा हो जाता है.

    भ्रम को मन से निकालिए.

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  3. ह्रदय विदारक पोस्ट सुशील जी....क्या कहें...कड़वी सच्चाई.
    नीरज

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  4. सच में इंसान कहलाने लायक नहीं है यह ..

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  5. आज जिसे देखो सभी को अपनी पडी हे, दुसरा जाये भाड मे क्या यही इंसानियत हे, बाते तो हम बहुत बडी बडी करते हे , लेकिन मोका नही गवांते किसी को दुंख पहुचाने का , फ़िर भी हम इंसान.
    आप ने बहुत सही कहा हे, आज का इंसान हेवान से भी ज्यादा गिर गया हे,उसे ना तो बच्चो की चीखे सुनती हे ना उस के आंसु दिखते हे, ना ही बुढी मां का छुटा सहारा दिखता हे,
    बस एक मॆ ही दिखता हे ओर यह**मॆ ** उसे जानवर से भी बदतर बना रहा हे
    धन्यवाद

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  6. Padh liya hai sushil ji aur reply bhi kar chuki hoon

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  7. बहुत ह्रदय विदारक ! afsosjanak है !

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  8. बहुत अफ़सोस नाक और लगता है की इंसानियत मर रही है !

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  9. पढ़ा-झकझोर कर रख दिया.

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  10. सही कह रहे हो दोस्त...
    पता नहीं कब निजात मिलेगी...

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  11. is rachna ne sochne par majboor kiya , saath hi bhaavuk bhi kar diya.

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  12. समाज की कड़वी सच्चाई है ये..

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