Sunday, November 13, 2011

नाटक- गालिब-ए-आजम और मैं

जब भी गोरा चेहरा, ऊंची नाक, चौड़ा माथा, लम्बे कान, घनी सफेद दाढ़ी, लम्बा कद, इकहरा बदन जिस पर लम्बा-सा चोगा , और सिर पर बड़ी-सी फर वाली टोपी पहनने वाले शख़्स मिर्जा असद अल्ला खां ग़ालिब उर्फ चाचा ग़ालिब का जिक्र आता है , तो उनका यह शेर बरबस ही याद आ जाता है जिसमें उनकी पूरी शख्सियत मौजूद है :

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि गालिब का है, अंदाज-ए-बयां और॥

सच  में मिर्जा गालिब का अंदाज-ए-बयां न्यारा ही था। वरना मिर्जा गालिब इतने दिनों तक अपनी शेरो शायरी के बल पर लोगों के दिलों में जिंदा न रह पाते। मैं तो अब तक शेरो शायरी का मतलब मिर्जा गालिब और मिर्जा गालिब का मतलब शेरो शायरी समझता रहा था। मैंने जब भी गालिब की शेरों शायरी की तरफ अपने कदम बढाये, फारसी के कठिन शब्द हमेशा गतिरोध की तरह बीच में आ खड़े हुए। इसके इतर मिर्जा गालिब के बारे में यही जाना कि शायर तो वो अच्छे थे पर बदनाम बहुत थे। इससे अधिक कुछ नहीं जाना। यह संयोग था कि जब सी. डी. सिद्धू  सर का लिखा नाटक " गालिब-ए-आजम" देखा तो मैं मिर्जा गालिब की शेरो शायरी के साथ-साथ उनका भी मुरीद हो गया। इस नाटक से मुझे मिर्जा गालिब की शख्सियत के कई पहलुओं से रुबरु होने का मौका मिला। नाटक में सी. डी. सिद्धू सर ने मिर्जा गालिब की जिंदगी के तीन अहम पन्नों को इतनी खूबसूरती से पेश किया है, मानो ऐसा लगा जैसे मिर्जा गालिब दोबारा जिंदा हो गए हों।

यूं तो मिर्जा गालिब और बदकिस्मती दोनों साथ-साथ चलते हैं, किंतु इस नाटक में गालिब के उस एक रुप को जब जाना तो मैं उनके हौंसले का कायल हुए बगैर नहीं रह सका, जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी। जिंदगी के सुनहरे दिनों में वो सिर तक कर्ज में डूबे रहे। रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाजे मिर्जा गालिब की बेगम उमराओं जान को परेशान करते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्जा गालिब के खिलाफ डिक्रियां निकलने लगी। जिसकी वजह से मिर्जा गालिब का गृहस्थ जीवन तनावों से घिरता रहा। मगर क्या मजाल कि इस फनकार को अपने फन से कोई तकलीफ जुदा कर पाती। यहां तक कि तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखता रहा और अंदर ही अंदर रोता रहा। शायद तभी उनकी कलम से यह शेर निकला :

मेरी किसमत में गम अगर इतना था ।
दिल भी, या रब्ब , कई दिये होते ॥

गालिब का दूसरा रुप इस नाटक में बखूबी तौर पर सामने आया है। जब फीरोजपुर झिरका व लोहारु के राजा नवाब अहमद खां की अनिकाही बेगम मुद्दी का बेटा शम्स अलादीन पूरी पेंशन ना देने की दगाबाजी लगातार करता रहा। और जब मिर्जा गालिब के सिर के ऊपर से पानी गुजरने लगा, तब वह इस बेइंसाफी के खिलाफ यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ कि जिस कलमकार ने खुद जिंदगी से जूझना नहीं सीखा, मुश्किलात को शिकस्त देना नहीं सीखा, वो दूसरों को क्या सिखाऐगा? एक डरपोक ऐसी नज्म नहीं कह सकता , जो दूसरों को बहादुर बनाए। एक कायर ऐसा शेर नहीं कह सकता जो सामईन के अंदर नई रुह फूंके। और वह अपनी पेंशनी हक की लड़ाई के लिए बनारस से होते हुए कोलकाता पहुंचकर अपने साथ किए गए धोखे के खिलाफ मुकदमा दायर करता है। बेशक यह इतिहास में दर्ज है पर यह सिद्धू सर के इस नाटक की खासियत है कि नाटक का नायक लाचारी, गुरबत और ढेरों तकलीफों के बीच रहते हुए भी बेईमानी और बेइंसाफी के खिलाफ जंगजू की तरह खड़ा हो जाता है, और दर्शकों को मुश्किलों से लड़ने का जज्बा देता है। यह अलग बात है कि चंद साल बाद ही वह पेंशन का मुकदमा खारिज होने के कारण एक बार फिर सदमे से गुजरता है। मगर नाटक के नायक मिर्जा गालिब की ही ताकत थी कि तमाम तकलीफों से भरी जिंदगी में भी इंसानियत का दामन पकड़े हुए कहता है :

हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यक्ता थे ।
बेसबब हुआ गालिब दुश्मन आसमां अपना ॥

सिद्धू सर के लिखे नाटकों में लगभग हर नायक की भांति ही मिर्जा गालिब की भी परिस्थितयां, हालात, हमेशा दुश्मन बने रहे। मगर इन हालात और तकलीफों के बीच से ही नाटक का नायक एक नया जीवन दर्शन, एक नई जीवन पद्धति, जीवन जीने का तरीका, अपनी बनारस और कोलकाता की यात्राओं में से खोज निकाल लाता है। इन दोनों शहरों की माटी की महक, जीवनशैली, संस्कृति को देखकर नायक की सोच में आए बदलावों को इस नाटक में भरपूर जगह दी गई है। बल्कि यूं कहूं कि अन्य नाटककारों ने इसका बस जिक्र भर किया है परतुं सिद्धू सर ने मिर्जा गालिब की जिंदगी में से जीवन के अध्यात्म को, उसके दर्शन को, अपने नाटक में पूरी तरह उंडेल दिया है। और यही इस नाटक की आत्मा है। मिर्जा गालिब का इस नाटक में यह तीसरा रुप है। जब वह बनारस की "चिरागे दैर" की रोशनी में इल्म को पाता है और कहता है : बनारस के कयाम ने मेरी सोच बदल दी। इन दिनों बहुत कुछ पता चला है मुझे। मजहब के बारे में। दीन धर्म के बारे में। धर्म के नाम पर पुजारियों ने, मुल्लाओं ने, फर्जी किस्से कहानियां घड़ रखे हैं। गरीबों को दौजख के खौफ दिखाकर , जन्नत के झूठे ख्वाब बुनकर, फुसला रखा है । ये तो पहले ही बेचारे भूख के मारे हैं, बीमारियों के सताये है, मौत के दहलाये हैं। ऊपर से पंडित और मुल्लाओं के ये ढ्कौसले। यह जुल्म है। यह खाओ, वो न खाओ। यह पियो, वो न पियो। नमाज पढ़ो । रोजा रखो। बुतो को मत पूजो। गालिब आगे कहता है: पुराने तौर तरीके बदलों। खुदा खोखली रस्मों रीतों में नही घुसा बैठा। खुदा आपसी मोहब्बत में है।

गालिब यहीं नहीं रुकते बल्कि अपनी आंखों में संत रविदास के बेगमपुर का ख्वाब देखते है, " जहां किसी को कोई गम न हो। सब जमीन जायदाद साझे में हो। बराबर हों सब लोग। कोई ऊंच नीच न हो। हर एक को रोटी मिले। कपड़ा मिले। वहीं दूसरी ओर गालिब जब कोलकाता की आधुनिकता के उजाले में खुद को खड़ा पाता है तो वह उसके हर नक्श को बखूबी देखता और समझता है। वह कोलकाता की फिजा में आधुनिकता की पड़ी छौंक को पहचानता है, उसकी महक को अपने नथूनों से अनुभव करता है। जीवन में क्या आवश्यक है क्या नहीं, बारिकी से समझता है। तभी तो वो कह उठता है कि " नई दुनिया को सलाम करो। कोलकाता देखो। अंग्रेजों की नई नई इजादें देखो। हम पत्थर से पत्थर टकरा कर आग जलाया करते थे। अंग़्रेज को देखो। एक तिनके पर थोड़ा सा मसाला लगाया और छूं!  आग जल गई! बड़े बड़े जहाज चलते है समुद्र में। हजारों कोस तक। कैसे ?  भाप से! " गालिब इधर आधुनिकता की रोशनी में आगे बढ़ने की ओर इशारा करता है। और इन इशारों को समझते हुए मेरा दिल कहता है :

हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है।
वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता ॥

तब मुझे लगता है कि आखिर यह "यूं " कितना गजब ढाता है। यूं होता तो क्या होता? इस यूं में क्या-क्या होता? या क्या-क्या हो सकता है? यह नाटक भी उसी की ओर आगे बढता हुआ एक कदम है। लगता है कि नाटक के लेखक सी.डी. सिद्धू सर भी आपसी मोहब्बत के धर्म , बेगमपुर के ख्वाब और कोलकाता की आधुनिकता के सपनो को अपनी आंखों में संजोये इस नाटक को रचते हैं। और इन सपनों से इंसान को इंसान बनने को प्रेरित करते हैं। इंसान को जिंदगी की तमाम तकलीफों से लड़ने के लिए जंगजू बनाते है। और एक खुशहाल, सुखी जिंदगी जीने के लिए नए-नए सपनो की राह दिखाते हैं। सी.डी. सिद्धू सर के इस नाटक " गालिब-ए-आजम" की यही तो खूबी है। और यह इस नाटक की जान है। अगर मैं " गालिब-ए-आजम " को नहीं देख पाता तो संभवत: गालिब को भी नहीं जान पाता । या यूं कहूं कि एक पूरी जिंदगी को नहीं जान पाता जो गालिब के जरिए हमें अपनी जिंदगी जीना सिखाती है। बकौल गालिब- " बेगम, यही है मेरी जिंदगी भर की कमाई। मेरा "दीवान-ए- गालिब" क्या जिंदगी बख्शी है खुदा ने। हादसों का हुजूम। मुसीबतों का जमघट। मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर मुश्किल को शेयरों में ढालता गया । हर नन्हें मुन्ने की मौत पर, मैं तहयया करता रहा, कि मैं अपने कलम से मलकल मौत से बदला लूंगा। मैं लाफानी कलाम कहूंगा। उमराओ, आज मुस्करा दो । हंस दो। " यह मुस्कराहट, खुशी, हंसी ही जीवन जीने का हौसला। और नाटक के लेखक का मकसद। जो सिद्धू सर के हर नाटक की तरह इस नाटक की पटकथा का अंत है। जब इन सुंदर पक्तिंयों के साथ मंच का पर्दा गिरता है तो "गालिब-ए-आजम" नाटक हमारे दिलो दिमाग पर छा जाता है। शायद सालों के लिए , सदियों के लिए , या फिर जीवन भर के लिए ।

- सुशील कुमार छौक्कर

नोट- यह नाटक रिव्यू "गालिब-ए-आजम" पुस्तक से लिया गया है, पुस्तक के लेखक है डॉ. चरणदास सिद्धू। और प्रकाशित हुआ है "श्री गणेश प्रकाशन"- 32/52 , गली नम्बर -11, भीकम सिंह कालोनी , विश्वास नगर, शाहदरा से ।

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