Tuesday, June 28, 2011

असरारुल हक मजाज लखनवी

मजाज उर्दू शायरी का कीटस है। मजाज शराबी है। मजाज बड़ा रसिक और चुटकलेबाज है। मजाज के नाम पर गर्ल्स कॉलेज अलीगढ़ में लाटरियां डाली जाती थी कि मजाज किसके हिस्से में पड़ता है। उसकी कवितायें तकियों के नीचे छुपाकर आंसुओं से सींची जाती थीं और कंवारियों अपने भावी बेटों का नाम उसके नाम पर रखने की कसमें खाती थी। 'मजाज के जीवन की सबसे बड़ी टे्जिड़ी औरत है।' मजाज से मिलने से पूर्व मैं मजाज के बारे में तरह तरह की बातें सुना और पढ़ा करता था और उसका रंगारंग चित्र मैंने उसकी रचनाओं में भी देखा था। उसकी नज्म 'आवारा' में तो मैंने उसे साक्षात रूप में देख लिया था। जगमगाती जागती सड़कों पर आवारा फिरने वाला शायर! जिसे रात हंस—हंस कर एक ओर मैखाने और प्रेमिका के घर में चलने को कहती है तो दूसरी ओर सुनसान वीराने में। जो प्रेम की असफलता और संसार के तिरस्कार का शिकार है। जिसके दिल में बेकार जीवन की उदासी भी है। और वातावरण की विषमताओं के विरूद विद्रोह की प्रचंड़ अग्नि भी।

मजाज से मेरी मुलाकात बड़े नाटकीय ढ़ग से हुई। रात के दस का समय होगा। मैं और साहिर नया मुहल्ला पुल बंगश के एक नए मकान में डट रहे थे। हम नहीं चाहते थे कि किसी को कानों कान खबर हो। साहिर चुपके चुपके सामान ढो रहा था और मैं मुहल्ले के बाहर सड़क के किनारे सामान की रखवाली कर रहा था कि एकाएक एक दुबला पतला व्यक्ति अपने शरीर नामक हडिडयों के ढचर पर शेरवानी मढ़े बुरी तरह लड़़खड़ाता और बड़बड़ाता मेरे सामने आ खड़ा हुआ। 'अख्तर शीरानी मर गया— हाए 'अख्तर' ! तू उर्दू का बहुत बडा शायर था— बहुत बड़ा।' वह बार बार यही वाक्या दोहरा रहा था। हाथें से शून्य में पल्टी सीधी रेखायें बना रहा था और साथ-साथ अपने मेजबान को कोस रहा था जिसने घर मे शराब होने पर भी उसे और शराब पीने को न दी थी और अपनी मोटर में बिठाकर रेलवे पुल के पास छोड़ दिया था। ठीक उसी समय कहीं से जोश मलीहाबादी निकल आए और मुझे पहचान कर बोले ' इसे संभालो प्रकाश ! यह मजाज है।' मजाज का नाम सुनते ही मैं एकदम चौंक पड़ा और दूसरे ही क्षण सब कुछ भुलाते हुए मैं इस प्रकार उससे लिपट गया मानों वर्षों पुरानी मुलाकाता हो।

मजाज एक महीना हमारे साथ रहा। उसकी शराबनोशी के बारे में मैं पहले से सुन चुका था और पहली मुलाकात में मुझे इसका तजुर्बा भी हो गया था, लेकिन इस एक महीने में मुझे अनुभव हुआ कि मजाज शराब नहीं पीता, शराब बड़ी बेदर्दी से मजाज को पीती जा रही है। यह अनुभव और भी उग्र हो उठा जब मेरे मौजूदा चांदनी चौक वाले मकान में मजाज लगातार कई महीने मेरे साथ रहा। इस बार मजाज को मैं उर्दू बाजार की एक पुस्तकों की दुकान पर से अर्धमृतावस्था में उठाकर लाया था और मैंने निश्चय किया था कि जहां तक संभव होगा उसे शराब नहीं पीने दूंगा। लेकिन अफसोस! मेरे सभी प्रयत्न व्यर्थ हुए। खाट छोड़ते ही मजाज ने फिर से पीना शुरू कर दिया। इस बुरी तरह कि जीवन में तीसरी बार उस पर नर्वस ब्रेकडाउन का आक्रमण हुआ। विश्वास न आता था, यही वह मजाज है जो होश की हालत में किसी मामूली से छछोरपन को भी गुनाह का दर्जा देता था, जिसे हर समय छोटे बड़े का लिहाज रहता था ओर जो इतना शर्मीला और लजीला था कि स्त्रियों के सामने उसकी नजरें तक न उठती थी। उन दिनों मजाज को देखकर पथ भ्रष्ट महानता का ख्याल आता था। और शायद उसने ठीक ही कहा था कि:

मेरी बर्बादियों का हम—नशीनों।

तुम्हें क्या, खुद मुझे भी गम नहीं है।।

यों तो मजाज को शुरू से रतजगे की बीमारी थी और इसी कारण घर के लोगों ने उसका नाम 'जग्गन' रख छोड़ा था, लेकिन उन दिनों शराब की तंद्रा के अतिरिक्त मजाज को बिल्कुल निद्रा न आती थी। अक्सर रात के डेढ़ दो बजे घर पहुंचता या पहुंचाया जाता। दरवाजा खोलने ओर उसे उसके कमरे में पहुंचाकर खाना खिलाने को मैंने नौकर को ताकीद कर रखी थी। लेकिन मजाज पर उस समय किसी से बातें करने का मूड सवार होता था, अतएव दरवाजा खुलते ही वह सीधा हमारे सोने के कमरे की ओर लपकता। सोने के कमरे का दरवाजा चूंकि भीतर से बंद होता था, इसलिए वह बाहर ही से चिल्लाकर पुकारता ' हद है, अभी से सो गये।' और यह पुकार सुबह चार पांच बजे फिर सुनाई देती ' हद है, अभी तक सो रहे हो।' और यह सिलसिला 5 दिसम्बर 1955 को बलरामपुर हस्पताल, लखनऊ में उस समय समाप्त हुआ जब कुछ मित्रों के साथ मजाज ने बुरी तरह शराब पी। मित्र तो अपने अपने घरों को चले गए लेकिन मजाज रात भर शराबखाने की खुली छत पर सर्दी में पड़ा रहा और उसके दिमाग की रग फट गई।

हमारा देश चूंकि मृतपूजक है इसलिए मजाज की मृत्यू पर अनगिनत लेख लिखे गये और उन लोगों ने भी बड़ा शौक मनाया जो उसकी जबान से उसका कलाम और चलते हए वाक्य सुनने के लिए उसे शराब के रुप में जहर पिलाया करते थे। दिल्ली की महफिलें जहां ऊपर के वर्ग की सुन्दर तथा भद्र महिलायों का झुरमुट होता था, जहां मजाज को ताबडतोड पैग पेश किये जाते थे और उससे ताबड़-तोड़ नज्में और गजलें सुनी जाती थी। जब मजाज का सांस फूल जाता तब उसे ड्राइवर के हवाले कर देते थे कि वो उसके घर छोड़ आए या अगर यह ना होता तो अपने बंगले के किसी कमरें में बंद करके बाहर से ताला लगा देते थे।

मजाज की जिंदगी के हालात बड़े दुखद थे। कभी पूरी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जहां से उसने बी.ए किया, उस पर जान देती थी। गलर्स कालेज में हर जबान पर उसका जिक्र था। उसकी आंखे कितनी सुंदर हैं! उसका कद कितना अच्छा है! वह क्या करता है? कहां रहता है? किसी से प्रेम तो नहीं करता—ये लड़कियों के प्रिय विषय थे और वे अपने कहकहों, चूड़ियों की खनखनाहट और उड़ते हुए दुपटटों की लहरों में उसके शेर गुनगुनाया करती थीं। लेकिन लड़कियों का यही चहेता शायर जब 1936 में रेडियो की ओर के प्रकाशित होने वाली पत्रिका आवाज का सम्पादक बनकर दिल्ली आया तो एक लड़की के ही कारण उसने दिल पर ऐसा घाव खाया जो जीवन भर अच्छा न हो सका । एक वर्ष बाद ही नौकरी छोड़कर जब वह अपने शहर लखनऊ को लौटा तो उसके सम्बंधियों के कथनानुसार वह प्रेम का ज्वाला में बुरी तरह फुंक रहा था और उसने बेतहाशा पीनी शुरू कर दी थी। इसी सिलसिले में 1940 में उस पर नर्वस ब्रेकडाउन का पहला आक्रमण हुआ और यह रट लगी कि फलां लड़की मुझसे शादी करना चाहती है लेकिन रकीब जहर देने की फिक्र में हैं। यहां यह बताना वेमौका न होगा कि मजाज ने दिल्ली के एक चोटी के घराने की अत्यंत सुंदर और इकलौती लड़की से प्रेम किया था, लेकिन उसके विवाहिता होने के कारण यह बेल मंढे न चढ़ सकी थीं।

उपचार से मानसिक दशा सुधरी तो माता पिता ने दिल के घाव का इलाज करना चाहा। लड़की! कोई सी लड़की जो उसके जीवन का सहारा बन सके, जो उसके रिसते हुए नासूर पर मरहम रख सके। मजाज ने सामान्य जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। उसी जमाने में, उसकी छोटी बहिन हमीदा के कथनानुसार चोट पर तस और चोट पड़ी। घर वालों ने किसी प्रकार एक नाता तै किया और मजाज ने शायद आत्म समर्पण में हामी भर दी। लेकिन जब बर—दिखव्वे के तौर पर अपने ससुर की सेवा में उपस्थित हुआ तो हजारों रूपया मासिक कमाने वाले सरकारी पदाधिकारी को डेढ़ सौ रूपल्ली माहवार पाने वाले एसिस्टैंट लायब्रेरियन में कोई आकर्षण नजर न आया। यहां एक बार फिर धन की जीत और कला की हार हुई। शायर ने एक बार दिल की आवाज पर कदम उठाये थे और मुंह के बल गिरा था। अबके अक्ल पर भरोसा किया था, फूंक फूंक कर कदम रखा था, लेकिन फिर ठोकर खा गया और खसिया कर रो पड़ा। और उस पर पागलपन का दूसरा हमला हुआ। अब वह स्वयं ही अपनी महानता के राग अलापता था। शायरों के नामों की सूची तैयार करता और गालिब और इकबाल के नाम के बाद अपना नाम लिखकर सूची समाप्त कर देता था।

मजाज की शायरी का प्रारंभ बिल्कुल परम्परागत ढ़ंग से हुआ और उसने उर्दू शायरी के मिजाज का सदैव ख्याल रखा। खालिस इश्किया शायरी करते हुए भी वह अपने जीवन तथा सामान्य जीवन के प्रभावों तथा प्रकृतियों को विस्मृत नहीं किया। हुस्नो इश्क का एक अलग संसार बसाने की बजाय वह हुस्नों इश्क पर लगे सामाजिक प्रतिबंधो के प्रति अपना रोष प्रकट करता। आसमानी हूरों की ओर देखने की बजाय उसकी नजर रास्ते के गंदे लेकिन हृदयाकर्षक सौंदर्य पर पड़ती और इन दृश्यों के प्रे़क्षण के बाद वह जन साधारण की तरह जीवन के दुख दर्द के बारें में सोचता और फिर कलात्मक निखार के साथ जो शेर कहता, तो उस में केवल किसी जोहराजबी से प्रेम ही नहीं होता, विद्रोह की झलक भी होती। यह विद्रोह कभी वह वर्तमान जीवन व्यस्था से करता, कभी साम्राज्य से, और जीवन की वंचनाओं के वशीभूत कभी कभी इतना कटु हो जाता कि अपनी जोहराजबीनों के रंगमहलों तक को छिन्न भिन्न कर देना चाहता।

इस में संदेह नहीं कि मजाज के जीवन में जितनी कटुतायें थी वह स्वयं ही उन सबका जन्मदाता था, लेकिन वह सदैव अपनी कटुताओं से खेला और उन्हीं से अपने लिए रस भी निचोड़ता रहा। आश्चर्य होता है कि ऐसा दुख भरा जीवन व्यतीत करने पर भी उसने कभी अपनी स्वाभाविक प्रफुल्लता और चुटकलेबाजी को हाथ से न जाने दिया था।

एक बार मित्रों की महफिल में एक ऐसे मित्र आये जिनकी पत्नी का हाल में ही देहांत हो गया था। और वे बहुत उदास थे। सभी मित्र उन्हें धीरज धरने को कहने लगे। एक मित्र ने तजवीज रखी कि दूसरी शादी तो आप करेंगे ही, जल्दी क्यों नहीं कर लेते ताकि यह गम दूर हो जाए। उन महाशय ने बड़ी गंभीरता से कहा कि जी हां, शादी तो मैं करूंगा लेकिन चाहता हूं कि किसी बेवा से करूं। यह सुनना था कि मजाज ने बड़ी सह्दयता प्रकट करते हुए तुरंत कहा, ' भाई साहब, आप शादी कर लीजिये, वह बेचारी खुद ही बेवा हो जाएगी।' अब कौन था जो इस भरपूर वाक्य से आनदिंत हुए बिना रह सकता। स्वयं वह मित्र भी खिलखिला पड़े।

इसी प्रकार एक साहित्य सम्मेलन में भाषण देते हुए जब एक सज्जन ने इकबाल की शायरी के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उसे ध्वंसशील तथा प्रतिक्रिया वादी कह दिया तो श्रोताओं में से इकबाल के किसी ने चिल्लाकर कहा ' अपनी यह बकवास बंद कीजिये। इकबाल की रूह को सदमा पहुंच रहा है। जलसे में शायद गड़बड़ हो जाती, लेकिन मजाज ने तुरंत उठ कर माइक्रोफोन हाथ में लेते हुए कहा ' जनाब! सदमा तो आपकी रूह को पहुंच रहा है, जिसे आप गलती से इकबाल की रूह समझ रहे हैं।' और यों पूरी सभा कहकहा लगा उठी।

यह तो खैर महफिलों और जलसों की बातें है, मजाज रास्ता चलते हुए भी फुलझड़ियां छोड़ता जाता। एक बार एक तांगे को रोक कर तांगे वाले से बोला: 'क्यों मियां, कचहरी जाओगे?' तांगे वाले ने सवारी मिलने की आशा से प्रसन्न होकर उत्तर दिया, 'जायेंगे साब!'  'तो जाओ' मजाज ने कहा और अपने रास्ते पर हो लिया।

नोट- यह लेख "प्रकाश पंडित " के द्वारा लिखा गया है और "मजाज और उनकी शायरी" किताब से लिया गया है जिसे छापा "राजपाल प्रकाशन" हैं। और साथ ही सागर भाई का शुक्रिया जिन्होंने मजाज साहब से हमारा परिचय कराया। 

4 comments:

Dr (Miss) Sharad Singh said...

असरारुल हक मजाज लखनवी जी के बारे में सुना था ...अब आपके इस आलेख से उनके बारे में विस्तृत जानकारी मिली...आभारी हूं.

हार्दिक शुभकामनायें !

सागर said...

Shukriya to aapka banta hai.

Bas shukriya.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

Mazaz saahb kaa mizaaz padhaa..kuchh eise hote he jo jindagi ke sukh dukh me har chhote chhote anubhavo ko bunate he. aur usake taane baane itane maarmik ho jaate he ki dekhate, sunate, padhhte banataa he..,fir ham uname se apni shaql dekhne kaa pryaas karne lagte he..kuchh milta jultaa miltaa bhi he..aur vo hame sabsbe achchhaa lagtaa he.., yah bhi ek prakaar kaa sukh he..is sukh ke liye hi achchi kitaabe padhhi jaati he, haalaanki ab esaa kam ho gayaa kintu yah tay he ki aapki tarah fitarat vaale hi kitaabo ki jaan bachaaye he, patrikaao yaa un keemati logo ki jaan bachaaye he jinhe vaakai padhhnaa chaahiye.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अभी पढ पाया इस पोस्ट को या यूं कहूँ कि समझ पाया इसे...

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