Tuesday, September 14, 2010

यमुना, हम और मीडिया

हर सुबह की तरह आदत से मजबूर होकर जब न्यूज सुनने के लिए टीवी चलाया तो वहाँ नीचे एंकर में एक न्यूज दौड़ रही थी कि तीसरा पुस्ता (उस्मानपुर) पानी में डूब गया है। एक पल को तो डर ही गया था। फिर मैं सोचने लगा, पर हमारी गली सूखी, ये चमत्कार कैसे हो गया? क्योंकि हमारे घर से तीसरे पुस्ते की पैदल दूरी बस दस मिनट की ही होगी। खैर जब कई घंटो के बाद भी पानी नहीं आया तो शाम को हम खुद ही निकल गए, ये देखने कि आखिर देखे तो माजरा क्या। ( पिछली बार अगस्त में भी कई न्यूज चैनल वालों ने पुल के नीचे की पार्किग को बस अड्डा बना दिया था।) जब पुस्ता रोड़ पर गया तो देखा कि लोगों का इतना तांता लगा हुआ है। ( सब टीवी देखकर ही आ रहे है) कि हर पुस्ते पर पुलिस तैनात है। यमुना को ऐसे देख रहे हैं कि जैसे आज से पहले यमुना देखी ही नही हो। सच तो यही है कि दिल्ली के लोगों ने यमुना देखी ही कहाँ है वो तो सिमट कर रह गई है एक छोटे से दायरे में और कहीं तो बिल्कुल ही सूख गई। जहाँ-जहाँ थोड़ा बहुत पानी है, उसे मैला कर दिया दिल्ली वालों ने कूड़ा-करकट डालकर और रही-सही कसर दिल्ली सरकार पूरा कर देती है गंदे नालों का पानी डालकर। और साथ ही उसकी खाली पड़ी जमीन को बेकार समझकर सरकार ने उस पर कहीं मेट्रो का डिपो बना दिया, कहीं खेलगाँव बना दिया, कहीं अक्षरधाम मंदिर बनावा दिया.............। आखिर कब तक यमुना चुप रहेगी............... और जब ये अपना उग्र रुप धारण करेगी तब लोग कहेंगे हाय यमुना तुने ये क्या किया? फिर मुख्यमंत्री जी आकर कहेंगी भगवान से दुआ करो कि सब ठीक हो जाए। गलतियां इंसान करे और ठीक भगवान करें अजीब लोग हैं?  खैर आगे बढ़ा तो देखा कि पानी तो अभी भी पुस्ता रोड़ से लगभग आठ नौ फुट नीचे ही होगा, जो पहले के मुकाबले थोड़ा ज्यादा तो है पर इतना भी नही कि हाय-तोबा मचाई जाए । धीरे-धीरे पानी को देखता हुआ आगे बढ़ा जा रहा हूँ। मेरे आगे बच्चों की एक टोली चल रही है अपनी मस्ती में। आगे एक आदमी पेशाब कर रहा है यमुना की तरफ मुँह करके। तभी एक बच्चा अपने दोस्तों से कहता है ओए...... धक्का दे दूँ इसे.....? दूसरा बच्चा अबे सा............ ले................खैर बच गई जान इस आदमी की :) और बच्चे निकल गए साईड से। पर हम भी अभी बच्चे ही ठहरे इसलिए बोल पड़े अरे भाई पुस्ता टूट जाऐगा, ज्यादा पेशाब मत करना, वो मुस्कराया :) । ( वैसे हमने उन महाश्य का फोटो खींच मारा, मोबाइल कैमरा भी क्या कमाल की चीज है जी :) )  पुस्ता रोड  के दोनों तरफ टेंट और तीरपाल लगे हुए हैं। उसके अंदर लोग अपना-अपना समान लेकर बैठे-लेटे हुए हैं। कोई बैठा बतिया रहा है, कोई चारपाई पर सोया हुआ है, दो बच्चे कबाड़ को छाँट रहे है, छोटी लड़कियाँ मेहंदी लगाने में मस्त हैं। एक बीमार स्त्री सड़क पर बोरी बिछाए लेटी हुई है, उसका पति सिरहाने पर बैठा उसे ही निहार रहा है। बैबसी उसके चेहरे पर साफ़ नजर आ रही है। आगे बढ़ता हूँ तो देखता कुछ सरकारी बाबू लिखा पढ़ी में लगे हुए है। दिल्ली जल बोर्ड का पानी का टेंकर खड़ा है और उसका पानी यूँ बह रहा है। उसका ड्राइवर कहाँ है कुछ पता नहीं। दो औरतें सड़क पर बैठी लूडो खेल रही है। पास ही एक लाली-पोप बेचने वाला खड़ा है, बच्चें खड़े होकर, लाली-पोप बिकने वाले का मुँह ताक रहे है ना जाने अंदर ही अंदर क्या सोच रहे हैं। इसके साथ लगे टेंट में एक बुजुर्ग चारपाई पर लेटा लम्बी-लम्बी साँसे ले रहा है, एक बच्चा हाथ के पंखे से उसकी हवा कर रहा है। कुछ लोग तीरपाल का आशियाना बना रहे है। उसके आगे दो बच्चे मछली पकड़ रहे हैं। शायद शाम के खाने में ये मछलियां ही पकेगी आज। आगे चलकर देखता हूँ सूअर अपनी मस्ती में मस्त हैं,  शायद टीवी नही देखते है। फिर सोचता हूँ कि आज से पहले कब देखे थे मैंने सूअर......पर आप ये मत सोचो, आप सोचो कि हम एक विकसित अर्थव्यवस्था या एक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे है पर किसी आपदा के आने पर दिल्ली जैसे शहर में लोगो को सड़को पर रहना पड़ता है। कोई भी ऐसी जगह नही जहाँ प्रभावित लोगो को रखा जाए  , कोई मशीनरी नजर नही आती...... आपदा प्रबधन नाम की कोई चीज नहीं....... है तो बस कागजों में......... हाँ आफिस जरुर है सफदरजंग एनकलेव में......और इसी विकसित होने के गुमान में क़ॉमनवेल्थ खेल करा रहे हैं और कैसी फजीयत हो रही,  वो आप देख ही रहे हैं। क्या इतने जरुरी थे ये खेल? भाई आपके यहाँ लोग दो रोटी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं, पता नही कितने लोग भूखे सोते? और कितने किसान खुदकुशी कर रहे है।..............मेरी मम्मी जी अक्सर कहती  है कि "भूखे पेट तो ढोल भी अच्छे नहीं लगते हैं"...........अब मैं तीसरा पुस्ता पहुँच गया हूँ। देखता हूँ कि जिस तीसरे पुस्ते की बात चैनल वाले कर रहे है वो तो खादर की तरफ है और जिसे सही में तीसरा पुस्ता कहते है वो उसके ठीक सामने। यानिकी जब भी यमुना में ज्यादा पानी आता है तो इधर आता ही। इसके साथ ही गुर्जरों का उस्मानपुर का पुराना गाँव है वैसे तो गाँव में काफी घर है पर जो भी वहाँ के रहने वाले थे वो इधर आ गए है तीसरे पुस्ते और पहले पुस्ते के बीच की क़ॉलोनी में इसको भी उस्मानपुर कहते हैं। पर इन लोगो ने वहाँ भी अपना आशियाने बना रखे हैं,  क्योंकि जब दिल्ली में भैंस रखने के लिए सरकार ने मना किया, ( क्योंकि दिल्ली को दिल्ली नहीं, लंदन बनाना चाहती है दिल्ली सरकार )  तो इन्होंने यहाँ अपना खरक ( जहाँ भैंस रहती है) बना लिया। इन्हीं गुर्जरों ने कुछ जगह कबाडियों को दे दी। कुछ खेत के मजदूरों को जो वहाँ सब्जी बगैरा उगाते हैं। और सड़क पर टेंट लगाकर ये ही लोग है। बाकी तो खाली जमीन है, देखना धीरे-धीरे इस पर कंक्रीट के जंगल बना दिए जाऐंगे। और बिल्कुल यही हाल आगे गढ़ी मेढू का है, वो भी गुर्जरों का गाँव है। पर जिस तीसरे पुस्ते को लोग जानते है और वो इधर है पुस्ता रोड़ से पूर्व की तरफ है ना कि पश्चिम में खादर की तरफ। और ये तीसरा पुस्ता आगे जाकर मिलता है ब्रहमपुरी में। और इस पुस्ता रोड़ पर कुल आठ पुस्ता है जीरो से लेकर पांच तक। अब सोचिए जिनके रिश्तेदार दूसरे शहरों में रहते है वो जब इस खबर को देखेंगे तो परेशान होंगे कि नहीं? और ऐसी ही एक स्टोरी को देखकर पिछले दिनों एक आदमी ने आफिस से घर फोन किया और बोला कि " वो स्कूल से बच्चों को ले आओ सुना है बस-अड्डे में पानी भर गया है टीवी में खबर आ रही है।"  हेल्लो यार सुना है तुम्हारे बगल के पुस्ते पर पानी आ गया है, तुम्हारे यहाँ का क्या हाल है? मेरे खुद के गाँव से रिश्तेदारों के फोन आ रहे हैं।  अब आप उन्हें समझाए और बताए कि ऐसा नहीं हैं। पर ये पत्रकार लोग परेशानी को कहाँ समझेंगे , इन्हें तो "बस स्टोरी बनानी है और सनसनी फैलानी है", जिसके कारण ज्यादा से ज्यादा दर्शक इनके चैनल को देखे, जिससे इनके चैनल की टीआरपी ज्यादा रहे, जब टीआरपी ज्यादा रहेगी तब विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे और जब विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे तो ज्यादा मुनाफा होगा और भाई जब मुनाफा ज्यादा होगा तो मालिक खुश होगा। सोच रहा हूँ आखिर ये मालिक लोग कितना खुश होना चाहते हैं?






































मीडिया का बस अड्डा































आज के पत्रकार




















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