Tuesday, August 10, 2010

जीने की खातिर

बनिहारन























एक बच्चा छोटा सा,
मैले-कुचैले कपड़े पहने,
रोज़ मुझे सड़क किनारे,
मिट्टी में पत्थरों संग,
खेलता मिलता हैं।

कभी देख मुस्कराता हैं,
कभी देखता ही जाता हैं।

माँ इसकी पत्थर तौड़ती है,
रख तसले में फिर उन्हें ढ़ोती है।
माथे पर आती पसीने की बूंदों को,
अपने फटे हुए पल्लू से पोंछती हैं।


बीच-बीच में तिरक्षी निगाहों से,
अपने लाडले को भी देखती है।

बताती है ये पेट की खातिर,
दूर गाँव से इस शहर आई है।
फुटपाथ बनाऐगी,
कुछ पैसा कमाऐगी।
चौमासे में गाँव वापस चली जाऐगी,
और ज़मीनदार के खेत में धान लगाऐगी।

इधर हम शहर की चमक में,
खूब तरक्की की बात करेंगे।
उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी।

                                - सुशील कुमार छौक्कर

18 comments:

Asha Joglekar said...

इधर हम शहर की चमक में,
खूब तरक्की की बात करेंगे।
उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी।
यथार्थ की तरफ बरबस ध्यान खींचती है आपकी यह कविता ।

kshama said...

Aah! Isi zindagee ko wo hanske jee lete hain.Lalten bhi mil jay to khush ho lete hain.Ye dararen na jane aur kitni sadiyon tak bani rahengi?

vandana gupta said...

यही तो त्रासदी है और हम चाहकर भी कुछ नही कर पाते…………ज़िन्दगी की एक हकीकत ये भी है कहीं धूप है तो कहीं छाँव , हर कोई अपनी अपनी ज़िन्दगी से लडता हुआ जीता है…………इसे पढकर वो कविता याद आ गयी……………"वो पत्थर तोडती" कुछ उसी रूप मे आपने भी दर्द का खाका खींचा है।

नैना बिटिया
बिल्कुल सही प्रश्न किया बस पापा से कहो कि अब इस प्रश्न का उत्तर दे सकें तो जीनियस कहलायेंगे वरना………………हा हा हा।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

बनिहारन। देखिये इस शीर्षक में ही 'हारन' है और अपने तरह का तर्क करुं तो 'बनि'भी है, बनी को हारन करने वाला, या जरने वाला। उसके लिये फिर कोई चिंता की बात ही नहीं होती। किंतु आपकी रचना में एक चिंता है, चिंतकों के साथ यह भी खूब रहता है कि वह बनी बनाई पद्धति में भी चिंता का विषय ढूंढ लेता है। 21 वीं सदी का भारत आज भी दो जून की रोटी की जुगाड में लगा है, चमक धमक वाले चके जा रहे हैं और इन चमक को लाने वाले बेचारे अपने घर तक की रंग-रोगन नहीं कर पाते। खैर..रचना में समाज का चित्रण है, दर्द है, सन्देश है जो जितना सोचे उसके लिये उतना सब कुछ है।

Tushar Mangl said...

acha laga

रंजू भाटिया said...

बहुत सही लिखा है दिल्ली में जगह जगह आज कल कुछ ऐसे ही हालात देखने को मिलते हैं
एक बच्चा छोटा सा,
मैले-कुचैले कपड़े पहने,
रोज़ मुझे सड़क किनारे,
मिट्टी में पत्थरों संग,
खेलता मिलता हैं।..

vandana gupta said...

aapaki kavita padhakar wo kavita yaad aa gayi jiske lafz kuch yun the..............wo todati patthar...........bahut hi sundarta se aapne halat ka chitran kiya hai.

सुशील छौक्कर said...

मेरी पोस्ट टिप्पणीयाँ कहाँ गई जी ।

ताऊ रामपुरिया said...

इधर हम शहर की चमक में,
खूब तरक्की की बात करेंगे।
उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी।

गरीब की जिंदगी में हमेशा यही जद्दोजहद चलती है, हमेशा पेट और परिवार को पालने के लिये मौसमानुसार मेहनत मजूरी करते जीवन कटता है, बहुत सुंदर लिखा.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया said...

आपकी टिप्पणीयां हमारे पास तो नही आई.:) जरा घर मे ही देखिये वहीं कहीं दुबक गई होंगी.:)

रामराम

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर लगी आप की बात, अरे हां मुझे रास्ते मै मिली थी आप की टिपण्णियां मैने पुछा कहा जा रही हो.... वोली गंगा स्नान को जा रही है, पुरी २३ थी, कल तक ळो्ट आयेगी

सुशील छौक्कर said...

राज भाटिया जी, सच में गंगा स्नान करने गई होंगी क्योंकि लोग कावड लेकर आ रहे है तो वो भी कावड लेकर आएगी। और ताऊ जी घर पर नही मिली? बात कुछ यूँ थी कि मेरी पोस्ट पर आई एक भी टिप्पणी नजर नही आ रही थी और अमिताभ जी से बात हुई कि मैंने तो की थी तो फिर कहाँ गई? बस दिल्ली में रुक्का पड गया कि कुछ टिप्पणियाँ गुम हो गई है। सब अपने दिमाग लगाकर ढूढ रहे थे। पर काफी मेहनत के बाद मिली मोडरेशन वाले वाक्स में पर। पहले तो मेल पर आती थी और वहाँ से पब्लिस और रिजेक्ट होता था। ये कैसे हो गया समझ अभी भी नही कि ये मेरे मेल में क्यों नही आ रही? ब्लोग के डेसबोर्ड में आ जाती है। खैर ...... आप सभी दोस्तों पसंद आई मेरी पोस्ट तो बहुत खुशी हुई।

नीरज मुसाफ़िर said...

उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी
बहुत दिन बाद आये हो भाई।
ये लाइनें मस्त कर गयीं।

ताऊ रामपुरिया said...

@सुशील कुमार छौक्कर जी

आपको पहले मेल में कमेंट चाहिये तो नीचे लिखा काम किजिये.

डैशबोर्ड पर settings > comments में जाकर निचे एक जगह Comment moderation का option है वहां आप अपना email adress भर दिजिये और Save कर दिजिये. कमेंट आपकी मेल में पुर्ववत आने लगेगें, फ़िर आप मेल से ही उनको मोडरेट कर सकेंगें.

रामराम

bhuvnesh sharma said...

जो हर कोई नहीं देख पाता आप जरूर देख लेते हैं....

हरकीरत ' हीर' said...

इधर हम शहर की चमक में,
खूब तरक्की की बात करेंगे।
उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी।

सच में आपकी नज़रें जो देखती हैं हर कोई नहीं देख पता .....
बहुत ही सुंदर भावों में पिरोया है .....

हाँ टिप्पणियाँ मिलीं ......?
अब तक आ गयी होगीं गंगा स्नान कर .....??

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

सुशील कुमार छौक्कर जी
बहुत भावपूर्ण कविता लिखने के लिए बधाई !

मां इसकी पत्थर तोड़ती है,
रख तसले में फिर उन्हें ढोती है।
माथे पर आती पसीने की बूंदों को,
अपने फटे हुए पल्लू से पौंछती है।

बीच-बीच में तिरछी निगाहों से,
अपने लाड़ले को भी देखती है।।
बताती है ये पेट की खातिर,
दूर गांव से इस शहर आई है।


मां - बच्चे का बहुत सजीव शब्दचित्र खींच दिया है आपने ।

… लेकिन , तब बच्चे का क्या होगा , आपने इसका खुलासा नहीं किया ।
यह रहस्य अकुलाहट देने वाला है …

आपके ब्लॉग पर आ'कर बहुत अच्छा लगा , अनेक पोस्ट्स में अनेक रंग देख कर ।

साधुवाद …

शुभकामनाओं सहित

- राजेन्द्र स्वर्णकार

मीत said...

बताती है ये पेट की खातिर,
दूर गाँव से इस शहर आई है।
फुटपाथ बनाऐगी,
कुछ पैसा कमाऐगी।
चौमासे में गाँव वापस चली जाऐगी,
और ज़मीनदार के खेत में धान लगाऐगी।
waah.. bahut sanvednatmak..
kafi kuch likha hai beete dino mein..
main pad nahi paya...
chalo aaj sab padh liya..
meet

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