Tuesday, March 30, 2010

अमिताभ जी की नजर में डा. चरणदास सिंद्धू जी ( भाग-2)

अनुभव जब एकत्र हो जाते हैं तो वे रिसने लगते हैं। मस्तिष्क में छिद्र बना लेते हैं और ढुलकने लगते हैं, कभी-कभी हमे लगता है अपनी खूबियों को बखानने के लिये व्यक्ति लिख रहा है, बोल रहा है या समझा रहा है। किंतु असल होता यह है कि अनुभव बहते हैं जिसे रोक पाना लगभग असम्भव होता है। नदियां बहुत सारी हैं, कुछ बेहद पवित्र मानी जाती है इसलिये उसमें डुबकी लगाना जीवन सार्थक करना माना जाता है। हालांकि तमाम नदियां लगभग एक सी होती हैं, कल कल कर बहना जानती हैं, उन्हें हम पवित्र-साधारण-अपवित्र आदि भले ही कह लें किंतु किसी भी नदी को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे कैसा माना जा रहा है या वो कैसी है? वो तो निरंतर बहती है, सागर में जा मिलती है। आप चाहे तो उसके पानी का सदुपयोग कर लें या उसे व्यय कर लें, या फिर नज़रअंदाज़ कर लें, यह सब कुछ हम पर निर्भर होता है। ठीक ऐसे ही आदमी के अनुभव होते हैं, जो रिसते हैं, कलम के माध्यम से या प्रवचन के माध्यम से या किसी भी प्रकार के चल-अचल माध्यम से। कौन किसका अनुभव, किस प्रकार गाह्य करता है यह उसकी मानसिक स्थिति या शक़्ति पर निर्भर है। " मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिन्दगी वो होती है जिसमें जरूरी आराम की चीज़े हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिये आवश्यक है कि आदमी तगडा काम करे जो इंसानियत की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी जीवन रिश्तेदारों और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते जिया जाय।" ( 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द चित्र', - सुखी जीवन-मेरा नज़रिया पृ.17) डॉ. चरणदास सिद्धू अब जाकर यह कह सके, यानी 44-45 वर्षों बाद, तो इसे क्या उनके जीवन का निचोड नहीं माना जा सकता? मगर ये ' दूसरों के वास्ते जिया जाय' वाला कथन मुझे थोडा सा खनकता है क्योंकि पूरी जिन्दगी उन्होंने नाटक को समर्पित की, उनका परिवार उनके समर्पण में सलंग्न रहा तो इसे मैं दूसरों के वास्ते जीना नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के वास्ते जीना ज्यादा समझता हूं। वैसे भी जब आप किसी लक्ष्य पर निशाना साधते हैं तो शरीर की तमाम इन्द्रियां आपके मस्तिष्क की गिरफ्त में होती है और आपको सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य दिखता है, ऐसे में दूसरा कुछ कैसे सूझ सकता है? यह सुखद रहा कि सिद्धू साहब को जैसा परिवार मिला वो उनके हित के अनुरूप मिला। यानी यदि जितने भी वे सफल रहे हैं उनके परिवार की वज़ह भी उनकी सफलता के पीछे है और यह उन्होंने स्वीकारा भी है। खैर..। पर यह तो नीरा दर्शन हुआ, जिसमें जीवन के लौकिक रास्तों से हटकर बात होती है। पर असल यही है कि सिद्धू साहब बिरले व्यक्ति ठहरे जिनका अपना दर्शन किसी गीता या कुरान, बाइबल से कम नहीं। यथार्थवादी दर्शन। और यह सब भी इसलिये कि उन्होंने जिन्दगी को जिया है, नाटकों में नाटक करके, तो यथार्थ में उसे मंचित करके। उनकी पुस्तक 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' जब पढ रहा था तो उसमे पहले पहल लगा कि व्यक्ति अपनी महत्ता का बखान कर रहा है, या करवा रहा है। किताब सबसे उत्तम जरिया होता है। मगर बाद में लगा कि व्यक्ति यदि अपनी महत्ता बखान भी रहा है तो फिज़ुल नहीं, बल्कि वो वैसा है भी। और यदि वो वैसा है तो उसका फर्ज़ बनता है कि वैसा ही लिखे या लिखवाये। कोई भी कलाकार हो, उसे अपनी कला का प्रतिष्ठित प्रतिफल मिले, यह भाव सदैव उसके दिलो दिमाग में पलता रहता है। यानी यह चाहत कोई अपराध नहीं। सामान्य सी चाहत है। इस सामान्य सी चाहत में रह कर असामान्य जिन्दगी जी लेने वाले शख्स को ही मैरी नज़र महान मानती है। महान मानना दो तरह से होता है, एक तो आप उक्त व्यक्ति से प्रभावित हो जायें, दूसरे आप व्यक्ति का बारिकी से अध्ययन करें, उसके गुण-दोषों की विवेचना करें। मैं दूसरे तरह को ज्यादा महत्व देता हूं। इसीलिये जल्दी किसी से प्रभावित भी नहीं होता, या यूं कहें प्रभावित होता ही नहीं हूं, क्योंकि यहां आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है, आप अपनी सोच से हट जाते हैं और प्रभाववश उक्त व्यक्ति के तमाम अच्छे-बुरे विचार स्वीकार करते चले जाते हैं। ऐसे में तो न उस व्यक्ति की सही पहचान हो सकती है, न वह व्यक्ति खुद अपने लक्ष्य में सफल माना जा सकता है। फिर एक धारणा यह भी बनाई जा सकती है कि आखिर मैं किस लाभ के लिये किसी व्यक्ति के सन्दर्भ में बात कर रहा हूं? और क्या मुझे ऐसा कोई अधिकार है कि किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर उसकी अच्छाई-बुराई लिखूं? नहीं, मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। न ही ऐसा करने से मुझे कोई लाभ है। फिर? आमतौर पर आदमी लाभ के मद्देनज़र कार्य करता है। उसे करना भी चाहिये। जब वो ईश्वर को अपने छोटे-मोटे लाभ के लिये पटाता नज़र आता है तो किसी व्यक्ति के बारे में लिख पढकर लाभ क्यों नहीं कमाना चाहेगा? मुझे भी लाभ है। वो लाभ यह कि मुझे सुख मिलता है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख कर जिसके माध्यम से अन्य जीवन को किसी प्रकार का रास्ता प्राप्त हो सके, बस इसका सुख। न कभी मैं सिद्धू साहब से मिला, न ही दूर दूर तक ऐसी कोई सम्भावना है कि मिलना हो। और मैं जो भी लिख रहा हूं वो सारा का सारा उनकी किताब में ही समाहित है। मैं तो सिर्फ उस लिखे को सामने रख अपनी व्याख्या कर रहा हूं, जो किसी भी प्रकार से गलत नहीं माना जा सकता। यह मैरा धर्म है कि जब किसी पुस्तक को पढता हूं तो उसे सिर्फ पढकर अलमारी के किसी कोने में सजाकर नहीं रख देता बल्कि उसके रस से अपनी छोटी ही बुद्धि से सही, सभी को सराबोर या अभिभूत करा सकने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि कोई भी पुस्तक किसी पाठक से यही चाहती है। यह मेरी, नितांत मेरी एक ईमानदार सोच है। और मेरा कर्म, धर्म लिखना ही तो है सो मैं इसे निसंकोच निभाता हूं। और लाभ यह कि सुख मिलता है। जैसा कि सिद्धू साहब ने लिखा- " सुख तो एक सोचने की आदत है, स्थाई तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत। सुख कभी न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिये आप हमेशा चीज़ों के रौशन रुख को ताकते रहें...।" मेरा रुख यही है। सुख की सोच। रोशन रुख को ताकते हुए। तो क्या, सिद्धू साहब दार्शनिक हैं? नहीं। उनका जीवन दार्शनिक है। उनके अनुभव दर्शन है। मैने उनकी किताबों से जो व्यक्तित्व पाया है उसके आधार पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। वरना लिखना तो उन लोगों के बारे में होता है जिन्हें आप अच्छी तरह से जानते हों। और यदि मैं कहूं, मैं उनके बारे में कैसे लिख रहा हूं तो वो सिर्फ इसलिये कि मेरी जिन्दगी में उनकी किताबे आईं और उन्हीं किताबों के जरिये अपनी छोटी सी बुद्धि के सहारे बतौर समीक्षक शब्दों में उतार रहा हूं। "नाटक लिखा नहीं जाता नाटक गढा जाता है" ( नाट्य कला और मेरा तजुरबा,मुलाकातें-पृ.165) सिद्धू साहब बताते हैं। जब अपनी धुन, अपने तरह का जीवन जिसने गढ रखा हो वो कोई चीज कैसे लिख सकता है? गढ ही सकता है। काश के मुझे उनके नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भविष्य में ही सही इंतजार किया जा सकता है। किंतु इधर 1973 से 1991 तक के सफर में उनके द्वारा जो करीब 33 नाटक रचे, लिखे गये हैं उन्हें पढने की उत्सुकता बढ गई है और यह भी तय है कि सबको धीरे धीरे पढ लूंगा। शायद तब डॉ. सिद्धू सर के नाटकों पर लिखा जा सकता है, अभी तो उनके जीवन पर ही लिखी गई किताबें मेरे पास है सो मैं सिर्फ वही लिख सकता हूं। जैसी किताब है। तो अगली पोस्ट में मिलिये और यह भी जानिये कि, हां आदमी जो ठान लेता है, वो करके ही दम लेता है। और जब दम लेता है तो उसके वो दम में बला की तसल्ली होती है। किंतु इस दम लेने के बीच उसे उम्र का बहुत बडा भाग तपा देना होता है। " स्वर्ण तप-तप कर ही तो निखरता है।" कैसे तपे सिद्धूजी? और कैसे निखरे? जरूर पढिये अगली पोस्ट में।

6 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

सारी पोस्ट पढ़ डाली ....क्या अमिताभ जी इन पर शोध कर रहे हैं .....??

किसी नाटककार पर इतना लम्बा आलेख ....ये तो पूरी रिसर्च है .....!!

अमिताभ श्रीवास्तव said...

bahut aashcharya hota he ki, esi post padhne vaale kam kyo hote hei?? pata nahi kyaa ham galat likhate hei yaa logo me ruchi hi nahi.., vese kabhi kabhi man niraash isliye ho jata he ki ek taraf ham pryaas karte he ki bharatiya sanskruti, uska parivesh oaur usake mahaan logo ke sandarbh ko jinda rakhe kintu afsos he..bahut kam paathak he isake// yaa to hame likhna band kar dena chahiye yaa fir svantah sukhaay vala drashtikon apnaa lena chahiye.../ kher...

जितेन्द़ भगत said...

प्रेरक और सार्थक।

Alpana Verma said...

प्रेरक व्यक्तित्व.
आप ने 'यथार्थवादी दर्शन 'को मानने वाले माननीय सिद्धू जी के विचारों/दर्शन की बेहतरीन समीक्षा
और सार्थक प्रस्तुति की है .
उनकी किताब/नाटकों की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी.

Alpana Verma said...

@अमिताभ जी,
मेरे ख्याल से अपने मन के सुख और संतोष के लिए लिखना चाहिये.
ऐसे आलेखों को जिनसे हम सीखते हैं उनपर कमेन्ट नहीं मिलते थोड़ा बुरा लगता है परन्तु
ऐसे लेख अगर १०० में १ के भी काम आ जाएँ तो लिखना सार्थक हो जाता है.
ऐसे बहुत से ब्लॉग उदाहरण हैं, मेरा ब्लॉग 'भारत दर्शन' भी एक ऐसा उदाहरन है लेकिन मुझे उसपर लिखने से आत्म संतुष्टि मिलती है.
कि मैं ने खुद कुछ सीखा और नेट पर हिंदी में उपलब्ध सामग्री में इज़ाफा किया.
सुशील जी या आप जैसे लेखक लिखना बंद कर देंगे तो यह हिंदी ब्लॉग्गिंग के हित में नहीं होगा.

vandana gupta said...

mahan hastiyon ke bare mein jankari dene ke liye aabhari hain.

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