Tuesday, March 30, 2010

अमिताभ जी की नजर में डा. चरणदास सिंद्धू जी ( भाग-2)

अनुभव जब एकत्र हो जाते हैं तो वे रिसने लगते हैं। मस्तिष्क में छिद्र बना लेते हैं और ढुलकने लगते हैं, कभी-कभी हमे लगता है अपनी खूबियों को बखानने के लिये व्यक्ति लिख रहा है, बोल रहा है या समझा रहा है। किंतु असल होता यह है कि अनुभव बहते हैं जिसे रोक पाना लगभग असम्भव होता है। नदियां बहुत सारी हैं, कुछ बेहद पवित्र मानी जाती है इसलिये उसमें डुबकी लगाना जीवन सार्थक करना माना जाता है। हालांकि तमाम नदियां लगभग एक सी होती हैं, कल कल कर बहना जानती हैं, उन्हें हम पवित्र-साधारण-अपवित्र आदि भले ही कह लें किंतु किसी भी नदी को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे कैसा माना जा रहा है या वो कैसी है? वो तो निरंतर बहती है, सागर में जा मिलती है। आप चाहे तो उसके पानी का सदुपयोग कर लें या उसे व्यय कर लें, या फिर नज़रअंदाज़ कर लें, यह सब कुछ हम पर निर्भर होता है। ठीक ऐसे ही आदमी के अनुभव होते हैं, जो रिसते हैं, कलम के माध्यम से या प्रवचन के माध्यम से या किसी भी प्रकार के चल-अचल माध्यम से। कौन किसका अनुभव, किस प्रकार गाह्य करता है यह उसकी मानसिक स्थिति या शक़्ति पर निर्भर है। " मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिन्दगी वो होती है जिसमें जरूरी आराम की चीज़े हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिये आवश्यक है कि आदमी तगडा काम करे जो इंसानियत की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी जीवन रिश्तेदारों और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते जिया जाय।" ( 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द चित्र', - सुखी जीवन-मेरा नज़रिया पृ.17) डॉ. चरणदास सिद्धू अब जाकर यह कह सके, यानी 44-45 वर्षों बाद, तो इसे क्या उनके जीवन का निचोड नहीं माना जा सकता? मगर ये ' दूसरों के वास्ते जिया जाय' वाला कथन मुझे थोडा सा खनकता है क्योंकि पूरी जिन्दगी उन्होंने नाटक को समर्पित की, उनका परिवार उनके समर्पण में सलंग्न रहा तो इसे मैं दूसरों के वास्ते जीना नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के वास्ते जीना ज्यादा समझता हूं। वैसे भी जब आप किसी लक्ष्य पर निशाना साधते हैं तो शरीर की तमाम इन्द्रियां आपके मस्तिष्क की गिरफ्त में होती है और आपको सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य दिखता है, ऐसे में दूसरा कुछ कैसे सूझ सकता है? यह सुखद रहा कि सिद्धू साहब को जैसा परिवार मिला वो उनके हित के अनुरूप मिला। यानी यदि जितने भी वे सफल रहे हैं उनके परिवार की वज़ह भी उनकी सफलता के पीछे है और यह उन्होंने स्वीकारा भी है। खैर..। पर यह तो नीरा दर्शन हुआ, जिसमें जीवन के लौकिक रास्तों से हटकर बात होती है। पर असल यही है कि सिद्धू साहब बिरले व्यक्ति ठहरे जिनका अपना दर्शन किसी गीता या कुरान, बाइबल से कम नहीं। यथार्थवादी दर्शन। और यह सब भी इसलिये कि उन्होंने जिन्दगी को जिया है, नाटकों में नाटक करके, तो यथार्थ में उसे मंचित करके। उनकी पुस्तक 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' जब पढ रहा था तो उसमे पहले पहल लगा कि व्यक्ति अपनी महत्ता का बखान कर रहा है, या करवा रहा है। किताब सबसे उत्तम जरिया होता है। मगर बाद में लगा कि व्यक्ति यदि अपनी महत्ता बखान भी रहा है तो फिज़ुल नहीं, बल्कि वो वैसा है भी। और यदि वो वैसा है तो उसका फर्ज़ बनता है कि वैसा ही लिखे या लिखवाये। कोई भी कलाकार हो, उसे अपनी कला का प्रतिष्ठित प्रतिफल मिले, यह भाव सदैव उसके दिलो दिमाग में पलता रहता है। यानी यह चाहत कोई अपराध नहीं। सामान्य सी चाहत है। इस सामान्य सी चाहत में रह कर असामान्य जिन्दगी जी लेने वाले शख्स को ही मैरी नज़र महान मानती है। महान मानना दो तरह से होता है, एक तो आप उक्त व्यक्ति से प्रभावित हो जायें, दूसरे आप व्यक्ति का बारिकी से अध्ययन करें, उसके गुण-दोषों की विवेचना करें। मैं दूसरे तरह को ज्यादा महत्व देता हूं। इसीलिये जल्दी किसी से प्रभावित भी नहीं होता, या यूं कहें प्रभावित होता ही नहीं हूं, क्योंकि यहां आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है, आप अपनी सोच से हट जाते हैं और प्रभाववश उक्त व्यक्ति के तमाम अच्छे-बुरे विचार स्वीकार करते चले जाते हैं। ऐसे में तो न उस व्यक्ति की सही पहचान हो सकती है, न वह व्यक्ति खुद अपने लक्ष्य में सफल माना जा सकता है। फिर एक धारणा यह भी बनाई जा सकती है कि आखिर मैं किस लाभ के लिये किसी व्यक्ति के सन्दर्भ में बात कर रहा हूं? और क्या मुझे ऐसा कोई अधिकार है कि किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर उसकी अच्छाई-बुराई लिखूं? नहीं, मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। न ही ऐसा करने से मुझे कोई लाभ है। फिर? आमतौर पर आदमी लाभ के मद्देनज़र कार्य करता है। उसे करना भी चाहिये। जब वो ईश्वर को अपने छोटे-मोटे लाभ के लिये पटाता नज़र आता है तो किसी व्यक्ति के बारे में लिख पढकर लाभ क्यों नहीं कमाना चाहेगा? मुझे भी लाभ है। वो लाभ यह कि मुझे सुख मिलता है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख कर जिसके माध्यम से अन्य जीवन को किसी प्रकार का रास्ता प्राप्त हो सके, बस इसका सुख। न कभी मैं सिद्धू साहब से मिला, न ही दूर दूर तक ऐसी कोई सम्भावना है कि मिलना हो। और मैं जो भी लिख रहा हूं वो सारा का सारा उनकी किताब में ही समाहित है। मैं तो सिर्फ उस लिखे को सामने रख अपनी व्याख्या कर रहा हूं, जो किसी भी प्रकार से गलत नहीं माना जा सकता। यह मैरा धर्म है कि जब किसी पुस्तक को पढता हूं तो उसे सिर्फ पढकर अलमारी के किसी कोने में सजाकर नहीं रख देता बल्कि उसके रस से अपनी छोटी ही बुद्धि से सही, सभी को सराबोर या अभिभूत करा सकने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि कोई भी पुस्तक किसी पाठक से यही चाहती है। यह मेरी, नितांत मेरी एक ईमानदार सोच है। और मेरा कर्म, धर्म लिखना ही तो है सो मैं इसे निसंकोच निभाता हूं। और लाभ यह कि सुख मिलता है। जैसा कि सिद्धू साहब ने लिखा- " सुख तो एक सोचने की आदत है, स्थाई तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत। सुख कभी न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिये आप हमेशा चीज़ों के रौशन रुख को ताकते रहें...।" मेरा रुख यही है। सुख की सोच। रोशन रुख को ताकते हुए। तो क्या, सिद्धू साहब दार्शनिक हैं? नहीं। उनका जीवन दार्शनिक है। उनके अनुभव दर्शन है। मैने उनकी किताबों से जो व्यक्तित्व पाया है उसके आधार पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। वरना लिखना तो उन लोगों के बारे में होता है जिन्हें आप अच्छी तरह से जानते हों। और यदि मैं कहूं, मैं उनके बारे में कैसे लिख रहा हूं तो वो सिर्फ इसलिये कि मेरी जिन्दगी में उनकी किताबे आईं और उन्हीं किताबों के जरिये अपनी छोटी सी बुद्धि के सहारे बतौर समीक्षक शब्दों में उतार रहा हूं। "नाटक लिखा नहीं जाता नाटक गढा जाता है" ( नाट्य कला और मेरा तजुरबा,मुलाकातें-पृ.165) सिद्धू साहब बताते हैं। जब अपनी धुन, अपने तरह का जीवन जिसने गढ रखा हो वो कोई चीज कैसे लिख सकता है? गढ ही सकता है। काश के मुझे उनके नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भविष्य में ही सही इंतजार किया जा सकता है। किंतु इधर 1973 से 1991 तक के सफर में उनके द्वारा जो करीब 33 नाटक रचे, लिखे गये हैं उन्हें पढने की उत्सुकता बढ गई है और यह भी तय है कि सबको धीरे धीरे पढ लूंगा। शायद तब डॉ. सिद्धू सर के नाटकों पर लिखा जा सकता है, अभी तो उनके जीवन पर ही लिखी गई किताबें मेरे पास है सो मैं सिर्फ वही लिख सकता हूं। जैसी किताब है। तो अगली पोस्ट में मिलिये और यह भी जानिये कि, हां आदमी जो ठान लेता है, वो करके ही दम लेता है। और जब दम लेता है तो उसके वो दम में बला की तसल्ली होती है। किंतु इस दम लेने के बीच उसे उम्र का बहुत बडा भाग तपा देना होता है। " स्वर्ण तप-तप कर ही तो निखरता है।" कैसे तपे सिद्धूजी? और कैसे निखरे? जरूर पढिये अगली पोस्ट में।

Monday, March 29, 2010

अमिताभ जी की नजर में नाट्ककार डा. चरणदास सिंद्धू जी।

किसी भी व्यक्ति को उसकी किताब से पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। वैसे भी किसी व्यक्ति को पूरा कब जाना जा सका है, हां उसके करीब रह कर उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी आदतें आदि जानी जा सकती है और जब ऐसे व्यक्ति किसी के बारे कुछ लिखते हैं तो हम उक्त व्यक्ति के सन्दर्भ में अपनी रूप रेखा बना सकते हैं। बस यही रूप-रेखा खींची है मैने डॉ. चरणदास सिद्धू को लेकर। इस देश में कई ख्यातिनाम नाटककार हुए हैं। उनमे से एक यदि मैं चरणदास सिद्धू को गिन लूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ठीक है कि मैने कभी सिद्धू साहब के नाटक नहीं देखे, कभी इसके पहले तक उनके नाम से परिचय नहीं हुआ, कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई, किंतु यह कतई जरूरी नहीं होता कि आपके जीवन में कभी कोई महान व्यक्ति आ ही नहीं सकता। समय-समय की बात होती है जब आपको मिलने, पढने आदि को प्राप्त होता है और तब आप कह उठते हैं कि अरे, मैं इनसे पहले क्यों नहीं मिल पाया या मैं इतना अज्ञानी रहा कि अब जा कर इनके बारे में पता चला? खैर देर आयद दुरुस्त आयद। धन्यवाद दूंगा सुशील छौक्कर जी का जिनके माध्यम से मैं डॉ.चरणदास सिद्धू के नाम से परिचित हुआ, फिर उनकी 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' तथा 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्दचित्र' जैसी किताब पढ पाया। दोनों किताबें सुशीलजी के सौजन्य से ही मुझे प्राप्त हुई। एक आदमी जिसने अपना पूरा जीवन नाटकों को समर्पित कर दिया, जिसने नाटक के अलावा कुछ और सोचा ही नहीं, जिसने अपने सामने आए कई सारे बडे प्रतिष्ठित पदों को ठुकरा दिया, जिसने अपने घर-परिवार तक को नाटक की दीवानगी में दूसरे पायदान पर रखा और जो आज भी नाटक के लिये ही जी रहा है क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना-समझना कोई नहीं चाहेगा? क्या ऐसे व्यक्ति बिरले नहीं? मैं समझता हूं कि किसी भी कार्य को करने के लिये सनक होनी चाहिये, सनक यानी दीवानगी आपको कार्य की सफलता तक छोडती है और यदि सफलता की चमक में आपकी आंखे चौन्धियाती नहीं है तो समझो आप सचमुच के आदमी है। बस यही 'आदमी' माना जा सकता है चरणदास सिद्धू को। सुशीलजी ने इनकी बारे में काफी कुछ बताया। फिर पढा। और फिर इनके बारे में, इनके करीबी रहे, छात्र रहे, दोस्त रहे, जानने-समझने वाले रहे व्यक्तियों ने जो कुछ भी लिखा, उसे भी पढा। फिर इनको मनन किया। और तब खींची रूप रेखा जो आपके सम्मुख लाने से रोक नहीं पाया।
इस देश में बेहतरीन नाटककार शेष ही कितने हैं? नाटककारों पर लिखने वाले भी शेष कितने है? और नाटककारों को जानने-समझने के लिये कितनों के पास वक्त है? ऐसे प्रश्न क्यों नहीं कौन्धते है आमजन में? खैर इससे नाटककारों या चरणदास सिद्धू जैसों को कोई मतलब भी नहीं क्योंकि ये तो बस धुनी रमाये हुए हैं, तप में लीन है। दुर्भाग्य हमारा है कि हम वंचित रह जाते हैं ऐसे दुर्लभ जीवन से, जिसके माध्यम से हम जीवन के कई सारे अनबुझे पहलुओं को जान सकते हैं, समझ सकते हैं। क्योंकि नाटककार सिर्फ नाटक मंचित नहीं करता बल्कि अपने जीवन को, अपने परिवेश को, अपने अनुभवों को या कहें एक समग्र जीवन दर्शन को कथानक में उतारकर पेश करता है। वो अभिनय करता या कराता तो है किंतु कहीं वो अपने ही जीवन के साथ खेल भी रहा होता है। कौन खेलता है अपने जीवन के साथ? आज जब मैं अपने चारों ओर भागते-दौडते-खाते-पीते- कमाते- गंवाते लोगों की भीड देखता हूं तो यही ख्याल आता है कि जी कौन रहा है? खेल कौन रहा है? जीवन काट रहें है सब। कट रहा है सबकुछ बस। खेलने के अर्थ बदल गये हैं। खैर..। मैने चरणदास जी के बारे में सुना व पढा है। फक्कड सा जीवन। किंतु ऐसी फक्कडता नहीं कि जीवन का लक्ष्य ही लुप्त हो जाये। अपने लक्ष्य के लिये तमाम बाधाओं को पार करने वाला व्यक्तित्व, अपने शौक के लिये आसमान को ज़मीन पर झुका देने वाला साहसिक जांबाज, अपनी एक अलग दुनिया बना कर चलने वाला दुनियादार इंसान...., क्या कभी मिल भी सकुंगा उनसे? क्योंकि जितना पढा-सुना है वो उनसे मिलने के लिये व्यग्र तो कर ही देता है किंतु अपनी भी बडी बेकार आदत है कि किसी के बारे में जानने-समझने के इस चक्कर में यदि कभी कहीं उसके ही विचारों के कई सारे विरोधाभास जब सामने आते हैं तो उसे कहने-बोलने से भी हिचकिचाता नहीं। कभी-कभी इस आदत के चलते सामने वाला मिलना नहीं चाहता। जबकि मिलकर मुझे बहुत कुछ और जानने-समझने को मिल सकता है जो ज्यादा असल होता है। पर..स्पष्टवादिता की प्रवृत्ति स्वभाव में प्राकृतिक रूप से जो ठहरी। कभी कभी गुडगोबर भी कर देती है। क्योंकि ज़माना औपचारिकता का है और अपने को औपचारिकता की ए बी सी डी नहीं आती। यानी हम जमाने के साथ नहीं है, यह हम जानते हैं। शायद इसीलिये बहुत पीछे हैं। वैसे इस पीछडेपन को हम स्लो-साइक्लिंग रेस मानते हैं। जिसमे जीतता कौन है? आप जानते ही हैं। खैर..डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में सुशीलजी से सुनकर, उनकी किताबो को पढकर उनके बारे में जो चित्र खींचा है वो वाकई दिलचस्प है और जिसे एकमुश्त पोस्ट मे ढालकर पेश नहीं किया जा सकता, सो अगली पोस्ट का इंतजार जरूर कीजियेगा।

नोट- यह पोस्ट अमिताभ श्रीवास्तव जी के ब्लोग से चोरी ना ना इजाजत से उठाई गई है।

Wednesday, March 24, 2010

मेरी माँ बोली "हरियाणवी" में एक कहानी

महादे-पारवती ( महादेव- पार्वती) 

एक बर की बात सै। पारबती महादे तैं बोल्ली - महाराज, धरती पै लोग्गाँ का क्यूँक्कर गुजारा हो रहया सै? हमनै दिखा कै ल्याओ। 
महादे बोल्ले- पारबती, इन बात्ताँ मैं के धरया सै? अडै सुरग मैं रह, अर मोज लूट। धरती पै आदमी घणे दुखी सैं। तू किस- किस का दुख बाँट्टैघी। 
पारबती बोल्ली- महाराज, मैं नाँ मन्नू। मैं तै अपणी आँख्या तै देक्खूँगी। संदयक देक्खे बिना पेट्टा क्यूक्कर भरै? 
महादे बोल्ले- तै चाल पारबती।  देख धरती की दुनियाँ दारी। न्यूँ कह कै वे दोन्नूँ अपणे नाधिया पै बैठ, थोड़ी हाण मैं आ पोंहचे धरती पै। उन दिनाँ गंगाजी का न्हाण था।  पारबती बोल्ली- महाराज, मैं बी गंगाजी न्हाँगी। गंगा न्हाण का बड़ा फल हो सै। जो गंगा न्हाले उननै थम मुकती दे दयो सो। मरयाँ पाच्छै वो आदमीं सूदधा सुरग मैं जा सै। अड़ै आए-ऊए दो गोत्ते बी मार ल्याँ गंगा जी मैं। 
महादे बोल्ले- पारबती, लोग हमनैं पिछाण लैंघे। अक न्यूँ कराँ, दोन्नूँ अपणा-अपणा भेस बदल ल्याँ। न्यूँ कह कै दोनुवाँ नै मरद-बीर का भेस भर लिया। भेस बदल कै दोन्नूँ चाल पड़े, गंगाजी कैड़। 
राह मैं पारबती नैं देख्या दुनियाँ ए गंगाजी न्हाण जा सै। कोए गाड्डी जोड़ रहे, तै कोए मँझोल्ली, कोए रह्डू , तै कोए पाहयाँ एक पाहयाँ चाल्ले जाँ सै। लुगाई गंगाजी के गीत गामती जाँ सै। अक जड़ बात या थी, सारी ए खलखत पाट्टी पड़ै थी गंगाजी के राह मै। 
पारबती बोल्ली- महाराज, धरती पै तै घणा एक धरम-करम बध रहया सै। देक्खो नाँ, टोल के टोल आदमीं गंगाजी न्हाण जाण लाग रहे। मेरै तै एक साँस्सै सै। थम कहो थे- जो गंगा न्हागा वो सूदधा सुरग मैं जागा। जै ये सारे न्हाणियाँ सुरग मैं आगे तै सुरग मैं तै तिल धरण की जघाँ बी नाँ रहैगी। सुरग मैं तै खड़दू रुप ज्यागा। 
महादे हँस्से अर बोल्ले- पारबती, तूँ तै भोली की भोली ए रही। ये सारे आदमी गंगाजी न्हाण कोन्या आए। कोए तै मेला-ठेला देक्खण आया सै। कोए खेत-क्यार के काम तैं बच कै आया सै। कोए-कोए अपणा बड्डापण जितावण ताँहीं आया सै। कोए- कोए अपणा मैल काट्टण आया सै। कोए बेट्टे माँगण ताँही आया सै, तै कोए पोत्ते माँगण ताँही। कोए बेट्टी नैं परणा कै सुख की साँस लेण आया सै। कोए अँघाई एक करण ताँही आया सै। गंगाजी न्हाणियाँ तै इनमैं उड़द पै सफेददी जितणा कोए-कोए ढूँढ्या पावगा। 
महादे की बात सुण कै पारबती बोल्ली- महाराज, थम तै मेरी बात नैं न्यूँ एँ टालो सो। कदे न्यूँ बी हुया करै? 
महादे बोल्ले- तूँ मेरी बात नैं बिचास कै देख ले, जै मेरी बात न्यूँ की न्यूँ साच्ची नाँ लिकड़ै तै। 
पारबती बोल्ली- महाराज, बात नैं बिचास्सो। महादे बोल्ले- बिचास ले। 
इतणी कह कै महादे नैं कोड्ढी का रुप धारण कर लिया अर पारबती रुपमती लुगाई बण गी। राह चालते नहाणियाँ नैं वो कोड्ढ़ी अर लुगाई देक्खी। बीरबान्नी तै हाथ मल मल कै रहगी। देख दुनियाँ मैं कितणा कुन्या सै? सुरत सी बीरबान्नी कोड्ढ़ी कै पल्लै ला दी। डूबगे इसके माई-बाप। के सारी धरती पाणी तैं भरी सै जो इसनैं जोड़ी का बर नाँ मिल्या? 
कोए उनतैं अँघाई करकै लिकड़ै। कोए कहै छोडडै नैं इस कोड्ढ़ी नैं। मेरै साथ चल, राज उडाइये। 
वा लुगाई सब आवणियाँ-जाणियाँ ताँही एक्कैं बात कहै- सिअ कोए इसा धरमातमाँ जो इसनैं कोड्ढी की जूण तैं छुटवादे। इसका हाथ पकड़ कै गंगीजी मैं झिकोला लवा दे? जै कोए इसनैं गंगाजी मैं नुहादे उसका राम भला करैगा। वो दूदधाँ न्हागा अर पूत्ताँ फलैगा। गंगाजी मैं न्हात्याँ हे इस की काया पलट हो ज्यागी। सै कोए धरमातमाँ जो इसका कस्ट मेट्टै? सब महादे-पारबती की बात सुणै अर मन मन मैं हँस्सैं। 
उस लुगाई की बात दुनियाँ सुणै पर मुंह फेर कै लीक्कड़ ज्या। जिसके हाड हाड मैं कोढ़ चूवै उसनैं कूण छूहवै। 
अक जड़ बात या थी अक कोए बी उसकै हाथ लावण नैं त्यार नाँ हुआ। लाक्खाँ न्हाणियाँ डिगरग़े अर वा लुगाई न्यूँ की न्यूँ खड़ी डिडावै। 
जिब भोत्तै हाण होली जिब एक धरमातमाँ उत आया। उस बिचारे नैं बी उस बीरबान्नी की गुहार सुणी। कोड्ढ़ी नैं देख कै उसका मन पसीज ग्या। उसनै सोच्या- हे परमेस्सर, इसे कूण से पाप करे अक यो कोड्ढ़ी बण्या? अर कूण से आच्छे करम के थे अक इतणी सुथरी बहू मिल्ली। उस आदमी नैं जिनान्नी की सारी बात सुणी अर बोल्या- जै इसका कोढ़ गंगा मैं न्हवाए तैं मिट ज्यागा तै मैं इसका झिकोला लगवा दयूँगा। थारा दोनुवाँ का अगत सुधर ज्यागा। तूँ न्यूँका, एक कान्नी तैं तै तू इसकी बाँह पाकड़ और दूसरी कान्नी तै मैं थांभूँगा। 
उस आदमी का तै उस कोड्ढ़ी कै हाथ लावणा था अर वो तैं साँच माँच का सिबजी भोला बणकैं खड़ या हो ग्या,अर बोल्या- देक्ख्या पारबती! मैं तत्तैं कहूँ था नाँ, अक सारे माणस गंगाजी न्हाण नहीं आमते।  लाक्खाँ मैं कोए कोए पवित्तर भा तैं गंगा न्हाण आवै सै जिसा यो आदमी लिकड़या। 
सिबजी भोले नैं उस आदमी ताँही आसीरबाद दिया अर वै दोन्नूँ अंतरध्यान होगे।  
नोट- यह कहानी हरियाणवी हिन्दी कोश से ली गई है जिसके लेखक डा. जय नारायण कौशिक और प्रकाशक - हरियाणा साहित्य अकादमी है।

Tuesday, March 2, 2010

आह...... होली पर बेटी, मेरा बचपन लौटा लाई।

नैना की होली

हम अपना बचपन देख नहीं पाते बस अपने बड़े बुजुर्गो से सुन ही पाते हैं, या एक आध घटनाएं हमारी स्मृति में बची रह जाती है। अगर हमें अपना बचपन देखना है तो अपने बच्चों के बचपन के संग हो लेना चाहिए और उस छूटे हुए बचपन को फिर से जीने के लिए। कुछ ऐसा ही मैंने इस बार किया। अपने और बेटी की खातिर हम भी होली में रंगीले हो लिए। सुबह सुबह बेटी ने हमें रंगा, दोपहर में हमने बेटी को रंग दिया। और बेटी की माँ कहाँ पीछे रहने वाले थी सो उन्होंने तो सबको ऐसा रंगा की सब एक दूसरे को पहचान ही नहीं पाए। खैर आप हमारी बेटी की होली की फोटो देखिए। और हाँ बेटी की पसंद के 10 गाने भी जानिए जिनको सुनने के लिए वह अपने पापा से खूब जिद करती हैं। और पापा गानों के लिए ब्लोगर साथियों के पीछे पड़े रहते हैं।

















सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे
ससुराल गैंदा फूल ..............................

















दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी
हाँ दिल तो बच्चा है जी ........................













आजा आजा दिल निचोड़े ,रात की मटकी तोड़े
कोई गुड़ लक निकाले, आज गुड लक तो फोड़ॆ ...........

















तू पैसा पैसा करती है क्यों पैसे पे इतना मरती है
मैं पैसों की लगा दूँ ढेरी री री री री...................













इब्न ए बतूता ता ता , बगल में जूता ता ता
पहने तो करता है चुर्र .............................













जब लाईफ हो आऊट आफ कंट्रोल
होंठो करके गोल, होठों को करके गोल
सीटी बजा के बोल ALL IS WELL













आजा आजा जिन्दे शामियाने के तले
जेरी वाले नीले आसमाने के तले
जय हो जय हो जय हो .......................................

















होले होले से हवा लगती है
होले होले से दवा लगती है
होले होले से दुआ लगती है
होले होले .......................
होले होले हो जाऐगा प्यार ....................













मसकली मसकली मसकली मसकली मसकली .........

















बेटा हो जा जवान तेरी शादी करुँगा
शादी करुँगा तेरी शादी करुँगा .......

कैसी लगी हमारी होली। और नैना बेटी के पसंद के गानों में से आपकी पसंद का गाना कौन सा है,  ये भी बताना जी।
 

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