बचपन के कितने अच्छे होते हैं। इन पंक्तियों को पढ़ते समय हम केवल बचपन की शरारतों को ही याद रखते हैं, संघर्षों को भूल जाते हैं। मेरा बचपन शरारत कम, संघर्षों में ज्यादा बीता है। पिताजी उन दिनों ट्रक चलाया करते थे। महीने-डेढ़ महीने से पहले नहीं लौटते थे। दो - चार दिन रुककर फिर चले जाते थे। घर पर रहते थे हम दोनों भाई और मम्मी। गाँव के बाहरी हिस्से में खेतों को छूता हुआ हमारा घर है। घर का खूंटा कभी खाली नहीं रहा। प्राईमरी स्कूल में पढ़ते थे। घर का और खेतों का सारा काम हम तीनों ही करते थे। दिन कब गुजर जाता पता ही नही चलता था काम करते हुए। हमारे घर में हाथ से चलाने वाली चारा काटने की मशीन (गंडासा) लगी थी। दोनों भाइयों में से एक मशीन में चारा लगाता था और मम्मी उसे घुमाकर चारा काटती थीं। एक दिन गलती से मैंने ज्यादा चारा लगा दिया। मम्मी में इतनी ताकत नहीं थी कि उसे काट दें। उन्होंने कहा -"बेटे, ज्यादा चारा लग गया है। आ, जरा हाथ लगा देना।" उस दिन नन्हे हाथों ने पहली बार मशीन का हत्था पकडा था। जैसे ही घुमाना शुरू किया, अचानक हाथ फिसल गया और हथेली सीधे गंडासे पर जा लगी। अभी तक मशीन घूम ही रही थी कि बाएँ हाथ की छोटी उंगली मशीन में जा फंसी और तुंरत ही कट गयी। मुझे उस समय तो दर्द भी नहीं हुआ। आधी उंगली कटकर नीचे कटे पड़े चारे में गिरकर खो गयी। मम्मी ने तुंरत ही कहा," हे भगवान्! मेरा लाल!!" कहते हुए आधी उँगली ढूंढी। उन्होंने इस घोर संकट में भी धैर्य व हिम्मत बनाये रखी। मेरी उँगली से तो खून निकल ही रहा था। मम्मी ने नल पर ले जाकर दोनों उँगलियाँ धोयीं- मेरी आधी बची उँगली भी और आधी कटी उँगली भी। उन्हें यथास्थान मिलाकर एक कपडे से बांध दिया और गोद में उठाकर गाँव के एकमात्र डॉक्टर के पास ले गयीं। डॉक्टर ने दवाई-पट्टी की। हड्डी नरम होने की वजह से उँगली जुड़ गयी। आज यह बाकी सभी उँगलियों की तरह ही काम करती है। हाँ, कटे का निशान जरूर अभी भी है। जाडों में कभी-कभी इसमें दर्द भी होने लगता है जो उन दिनों के संघर्षों व परिस्थितियों की याद दिला जाता है।
शब्दों का रंग- सुख-दुख की झोली
हर यात्री को अपनी झोली खोलकर यात्रा करनी चाहिए, जो न मिले उसका दुःख न करके, जो मिले उसे समेटकर ही अपने भाग्य की सराहना करनी चाहिए। क्योंकि सुख का अभाव कभी दुःख का कारण नहीं बनता, उलटे एक नए, अपरिचित सुख को जन्म देता है। -निर्मल वर्मा, चीडों पर चांदनी
हँसी का रंग- ना सोऐंगे ना सोने देंगे
मैं और मेरा दोस्त अमित साथ-साथ ही रहते हैं। कमरे में एक ही फोल्डिंग है, इसलिए हममे से एक को नीचे फर्श पर ही बिस्तर लगाना होता है। उस दिन अमित तो फोल्डिंग पर सो रहा था और मैं नीचे पड़ा हुआ था। नींद नहीं आई तो एक शरारत सूझी और मैंने अमित का मोबाइल उठा लिया। देखा कि इसने कौन सी रिंग टोन लगा रखी है- "आने से उसके आये बहार, जाने से उसके जाए बहार।" अलार्म कितने बजे का लगा रखा है- सुबह सात बजे का। तभी मैंने सुबह तीन बजे का 'रिमाइंडर' भी लगा दिया। एक दूसरा रिमाइंडर लगाया आधे घंटे बाद का यानी साढे तीन बजे का, तीसरा रिमाइंडर चार बजे का, चौथा साढे चार का और पांचवां पांच बजे का.................। सभी की टोन भी रिंगटोन वाली ही सेट की- आने से उसके आये बहार। फोन उसके कान के पास रखकर सो गया। तीन बजे गाना सुनकर मेरी आँख खुली। अमित कुनमुनाया और फोन 'काट' दिया। साढे तीन बजे भी गाना बजा और अमित ने इसे भी काट दिया। चार बजे फिर बजा। अमित बडबडाया -"पता नहीं कौन मर रहा है इतनी रात को?" इस बार फोन 'रिसीव' कर लिया और बोला -"हेलो, हाँ जी कौन?...कौन बोल रहे हैं आप?... अबे चुप क्यों है? ... अगर तुझे बात ही नहीं करनी तो फोन क्यों मिलाया? ... कुत्ते कमीने अब फोन मत कर देना। अगर करना ही है तो सुबह दस बजे के बाद करना।" फिर साढे चार वाला रिमाइंडर बजा। इस बार तो उसने 'स्विच ऑफ़' ही कर दिया। सुबह को जब मैं साढे सात बजे उठा तो देखा कि फोन को हाथ में लिए कुछ चेक कर रहा था। बोला -"यार नीरज, पता नहीं, फोन में क्या गड़बड़ हो गयी। साले ने सोने ही नहीं दिया।"
"क्यों, क्या हो गया?"
"पता नहीं, बारह बजते ही अपने आप बजने लगा।"
"अपने आप कैसे बज जायेगा? कोई फोन कर रहा होगा।"
"मैंने भी तो यही सोचा था कि कोई फोन कर रहा है लेकिन अब चेक किया है। किसी की कॉल तो क्या, मिस्ड कॉल तक नहीं है।"
"अबे बावली पूंछ, कहीं तूने बारह बजे का अलार्म तो नहीं भर दिया था?"
"नहीं यार, अलार्म भी सात बजे का ही है, ये देख। चल, अलार्म भी होता तो एक बार ही तो बजता। लेकिन यह तो बार-बार ही बजने लगा। आखिर में स्विच ऑफ़ करना पड़ा।"
"कमाल कर रहा है, इतनी बार बजा, और मुझे पता तक नहीं लगा? किसी और का बेवकूफ बनाना।"
"तुझे कहाँ पता चलेगा। तुझे अपने अलार्म का ही पता नहीं चलता। आज सारी नींद खराब हो गयी। सुबह सवेरे की जो नींद होती है, साले ने सारी ख़राब कर दी।"
सोने के शौकीन और घूमने के आदी नीरज जी के ब्लोग पर भी घूम आईए मुसाफिर हूँ यारों