Monday, November 30, 2009

जिंदगी के रंग- नीरज जी के संग


संघर्ष का रंग- उंगली का दर्द 
बचपन के कितने अच्छे होते हैं। इन पंक्तियों को पढ़ते समय हम केवल बचपन की शरारतों को ही याद रखते हैं, संघर्षों को भूल जाते हैं। मेरा बचपन शरारत कम, संघर्षों में ज्यादा बीता है। पिताजी उन दिनों ट्रक चलाया करते थे। महीने-डेढ़ महीने से पहले नहीं लौटते थे। दो - चार दिन रुककर फिर चले जाते थे। घर पर रहते थे हम दोनों भाई और मम्मी। गाँव के बाहरी हिस्से में खेतों को छूता हुआ हमारा घर है। घर का खूंटा कभी खाली नहीं रहा। प्राईमरी स्कूल में पढ़ते थे। घर का और खेतों का सारा काम हम तीनों ही करते थे। दिन कब गुजर जाता पता ही नही चलता था काम करते हुए। हमारे घर में हाथ से चलाने वाली चारा काटने की मशीन (गंडासा) लगी थी। दोनों भाइयों में से एक मशीन में चारा लगाता था और मम्मी उसे घुमाकर चारा काटती थीं। एक दिन गलती से मैंने ज्यादा चारा लगा दिया। मम्मी में इतनी ताकत नहीं थी कि उसे काट दें। उन्होंने कहा -"बेटे, ज्यादा चारा लग गया है। आ, जरा हाथ लगा देना।" उस दिन नन्हे हाथों ने पहली बार मशीन का हत्था पकडा था। जैसे ही घुमाना शुरू किया, अचानक हाथ फिसल गया और हथेली सीधे गंडासे पर जा लगी। अभी तक मशीन घूम ही रही थी कि बाएँ हाथ की छोटी उंगली मशीन में जा फंसी और तुंरत ही कट गयी। मुझे उस समय तो दर्द भी नहीं हुआ। आधी उंगली कटकर नीचे कटे पड़े चारे में गिरकर खो गयी। मम्मी ने तुंरत ही कहा," हे भगवान्! मेरा लाल!!" कहते हुए आधी उँगली ढूंढी। उन्होंने इस घोर संकट में भी धैर्य व हिम्मत बनाये रखी। मेरी उँगली से तो खून निकल ही रहा था। मम्मी ने नल पर ले जाकर दोनों उँगलियाँ धोयीं- मेरी आधी बची उँगली भी और आधी कटी उँगली भी। उन्हें यथास्थान मिलाकर एक कपडे से बांध दिया और गोद में उठाकर गाँव के एकमात्र डॉक्टर के पास ले गयीं। डॉक्टर ने दवाई-पट्टी की। हड्डी नरम होने की वजह से उँगली जुड़ गयी। आज यह बाकी सभी उँगलियों की तरह ही काम करती है। हाँ, कटे का निशान जरूर अभी भी है। जाडों में कभी-कभी इसमें दर्द भी होने लगता है जो उन दिनों के संघर्षों व परिस्थितियों की याद दिला जाता है। 


शब्दों का रंग- सुख-दुख की झोली 
हर यात्री को अपनी झोली खोलकर यात्रा करनी चाहिए, जो न मिले उसका दुःख न करके, जो मिले उसे समेटकर ही अपने भाग्य की सराहना करनी चाहिए। क्योंकि सुख का अभाव कभी दुःख का कारण नहीं बनता, उलटे एक नए, अपरिचित सुख को जन्म देता है। -निर्मल वर्मा, चीडों पर चांदनी 



हँसी का रंग- ना सोऐंगे ना सोने देंगे
मैं और मेरा दोस्त अमित साथ-साथ ही रहते हैं। कमरे में एक ही फोल्डिंग है, इसलिए हममे से एक को नीचे फर्श पर ही बिस्तर लगाना होता है। उस दिन अमित तो फोल्डिंग पर सो रहा था और मैं नीचे पड़ा हुआ था। नींद नहीं आई तो एक शरारत सूझी और मैंने अमित का मोबाइल उठा लिया। देखा कि इसने कौन सी रिंग टोन लगा रखी है- "आने से उसके आये बहार, जाने से उसके जाए बहार।" अलार्म कितने बजे का लगा रखा है- सुबह सात बजे का। तभी मैंने सुबह तीन बजे का 'रिमाइंडर' भी लगा दिया। एक दूसरा रिमाइंडर लगाया आधे घंटे बाद का यानी साढे तीन बजे का, तीसरा रिमाइंडर चार बजे का, चौथा साढे चार का और पांचवां पांच बजे का.................। सभी की टोन भी रिंगटोन वाली ही सेट की- आने से उसके आये बहार। फोन उसके कान के पास रखकर सो गया। तीन बजे गाना सुनकर मेरी आँख खुली। अमित कुनमुनाया और फोन 'काट' दिया। साढे तीन बजे भी गाना बजा और अमित ने इसे भी काट दिया। चार बजे फिर बजा। अमित बडबडाया -"पता नहीं कौन मर रहा है इतनी रात को?" इस बार फोन 'रिसीव' कर लिया और बोला -"हेलो, हाँ जी कौन?...कौन बोल रहे हैं आप?... अबे चुप क्यों है? ... अगर तुझे बात ही नहीं करनी तो फोन क्यों मिलाया? ... कुत्ते कमीने अब फोन मत कर देना। अगर करना ही है तो सुबह दस बजे के बाद करना।" फिर साढे चार वाला रिमाइंडर बजा। इस बार तो उसने 'स्विच ऑफ़' ही कर दिया। सुबह को जब मैं साढे सात बजे उठा तो देखा कि फोन को हाथ में लिए कुछ चेक कर रहा था। बोला -"यार नीरज, पता नहीं, फोन में क्या गड़बड़ हो गयी। साले ने सोने ही नहीं दिया।"





"क्यों, क्या हो गया?"
"पता नहीं, बारह बजते ही अपने आप बजने लगा।"
"अपने आप कैसे बज जायेगा? कोई फोन कर रहा होगा।"
"मैंने भी तो यही सोचा था कि कोई फोन कर रहा है लेकिन अब चेक किया है। किसी की कॉल तो क्या, मिस्ड कॉल तक नहीं है।"
"अबे बावली पूंछ, कहीं तूने बारह बजे का अलार्म तो नहीं भर दिया था?"
"नहीं यार, अलार्म भी सात बजे का ही है, ये देख। चल, अलार्म भी होता तो एक बार ही तो बजता। लेकिन यह तो बार-बार ही बजने लगा। आखिर में स्विच ऑफ़ करना पड़ा।"
"कमाल कर रहा है, इतनी बार बजा, और मुझे पता तक नहीं लगा? किसी और का बेवकूफ बनाना।"
"तुझे कहाँ पता चलेगा। तुझे अपने अलार्म का ही पता नहीं चलता। आज सारी नींद खराब हो गयी। सुबह सवेरे की जो नींद होती है, साले ने सारी ख़राब कर दी।"


सोने के शौकीन और घूमने के आदी नीरज जी के ब्लोग पर भी घूम आईए मुसाफिर हूँ यारों

Monday, November 16, 2009

जिंदगी के रंग-सुशील के संग




संघर्ष का रंग- अभी हाथ नही गड़े धरती में मेरे







जिंदगी की शुरुआत संघर्ष रंग से ही होती है। बाकी के रंग जिंदगी में आते जाते रहते हैं। पर ये रंग आपकी जिंदगी से ऐसा रंग जाता है कि छूटता ही नहीं। फीका हो जाता है पर छुटता नही है। जिस घटना की इस रंग के रुप चर्चा कर रहा हूँ उससे ज्यादा मुझे किसी चीज के लिए संघर्ष नही करना पड़ा। बात उन दिनों की हैं। जब छोटी बहन की तबीयत ऐसी खराब हुई कि खिलखिलाते चेहरों पर उदासी का रंग चढ़ गया था। और जिस घर में खूब चहल पहल हुआ करती थी वो घर अब खामोश सा रहने लगा था। बसों में धक्के खाते हुए, सरकारी अस्पताल की लम्बी लाईनों में घंटो खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना। काफी दिन तो अलग अलग टेस्टों में ही गुजर गए। बस चंद दिनों में एक स्वस्थ बहन एक लकड़ी सी बन गई थी। सब कुछ छोड़कर बस मुझे यही सूझता था कैसे भी इसे बचाना है। तीन महीनों के बाद एक टेस्ट की रिपोर्ट आई जिससे बीमारी और दवाई का पता चला। खैर डाक्टर साहब ने दवाई लिख दी। जब दवाई लेने गए तो पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। इतनी तो इनकम भी नही जितनी की दवाईय़ाँ लिखी गई है। और ऊपर से तनखा भी समय पर नही मिलती थी पिताजी को। मुझे याद है जिस दिन तनखा मिलती थी पिताजी को उसी दिन आते ही मेरे हाथ में तनखा रखकर कहते थे "कल सुपर बाजार जाकर दवा ले आना" खैर दवाईयाँ चलती रही। नौकरी कर नही सकता था क्योंकि अस्पताल बहुत जाना पड़ता था। दिमाग में आया कि टयूशन पढ़ाया जाए और सरकारी नौकर बनने के लिए तैयार करनी चाहिए। उन दिनों जब भी वक्त मिलता था मैं हरदयाल लाईब्रेरी भी जाया करता था पेपरों की तैयारी के लिए। उस वक्त शायद मैं बीकाम की आखिरी साल की परीक्षा दे चुका था। समझ नही आता था जब सारी तनखा दवाईयों और दूसरे अस्पताल के खर्चों में चली जाती है तो घर कैसे चलता है। और टयूशन पढ़ाकर भी ज्यादा पैसे कमा नही पाता था। इसी बीच मुझे एक छोटा लड़का मिला जिसने मुझे ईमानदारी का पाठ पढाया वो भी उस वक्त जब पैसे की खातिर मेरे भटकने की गुंजाईश ज्यादा थी साथ ही गलत रास्ते पर भी जा सकता था क्योंकि पैसो की बहुत जरुरत थी। बात कुछ यूँ थी कि वह लड़का मेरे पास आया और बोला अंकल जी एक रुपया दे दो। भूख लगी है ब्रेड खाऊँगा। मैंने उसे दो रुपये का सिक्का दे दिया। फिर वह ब्रेड लेकर आया और मुझे इक रुपये का सिक्का वापिस देकर चला गया। भूख की खातिर भी वह लड़का नही भटका। और मुझे जिंदगी का एक नया पाठ और एक नया रंग दिखा गया। खैर दवाई चलती रही। पर बहन की तबीयत में बहुत मामूली सुधार दिख रहा था पर जैसी उम्मीद डाक्टर को थी वो सुधार कहीं नजर नही आ रहा था। डाक्टर के पास दवाई बदलने का चारा भी नही था। कोई सात महीने बाद अचानक मेरी निगाह नीचे पडी एक गोली पर पड़ी जोकि बहन के स्कूल बस्ते के पास थी। बस्ते को खोला गया तो आँखे फटी की फटी रह गई। उसके अंदर काफी गोली और केप्सूल रखे हुए थे। डाँट कर बहन से पूछा तो पता चला कि वो हमारे सामने एक ही गोली को खाती थी बाकी गोलियों को नहीं। बची दवाईयों को नाली में बहा देती थी और जिनको नही फैंक पाती थी उसे बस्ते में डाल देती थी। क्योंकि उसे वो दवाईयाँ कड़वी लगती थी। अजीब सी हालत हो गई थी हम सब की। खासकर पिताजी की। सारा पैसा पानी में चला गया। पहले ही इतना कर्ज हो चुका था। मैं सोचने लगा अब आगे क्या होगा। अगले दिन हम सब बैठे हुए थे तब मैंने पिताजी से पूछा अब क्या होगा पापा? उनका जवाब एक लाईन में आया अभी हाथ नही गड़े धरती में मेरे और बाहर निकल गए। आज भी कोई परेशानी आती है तो पिताजी के कहे ये शब्द मुसीबतों से लड़ने का ज़ज़्बा दे जाते है। बाद में डाक्टर ने कहा कि ये ही दवाईयाँ चलेगी उतने ही दिन। खैर छोटी बहन तब जी गई..............


शब्दों के रंग- जूझोगे तो जीओगे। 
आदमी को चाहिए वह जूझे, 

परिस्थितयों से लड़े 
एक स्वप्न टूटे, तो दूसरे गढ़े। 
                  -अज्ञात


हँसी का रंग- बंदर की पूछ 

किस्सा तब का है जब मैं 12वी क्लास में "धनपतमल बिरमानी स्कूल रुपनगर" में पढ़ा करता था। बात दिवाली के दिनों के बाद की हैं। जिस क्लास को दिवाली से पहले सजाया गया था। दिवाली के बाद उसी क्लास को सजाने में लगे समान को उतारा और खराब किया जा रहा था। मैं ज्यादा कुछ ना करके रंगीन कागज के रीबीन तोड़कर छुट्टी होने पर चुपके से दोस्तों के पीछे पेंट में लगा देता था और मैं गले में हाथ डालकर बस स्टेंड तक ले जाता था। स्कूल से लेकर स्टेण्ड तक के रास्ते में जो भी देखता वही हँसता। और मैं हँसी को ऐसे रोक रहा था जैसे छोटे बच्चे को शरारत करने से रोकते है। रोज कोई ना कोई मेरा शिकार बन रहा था। पर एक दिन क्या देखता हूँ। मैं बस स्टेण्ड पर खड़ा हूँ लड़कियाँ हँस रही है। मेरे अगल बगल खड़े साथी भी हँस रहे है। मामला समझते देर नही लगी, देखा तो आज मेरे पीछे बंदर जैसी पूँछ (कागज के रीबन) लगी हुई थी।

Wednesday, November 11, 2009

सपने वाली लड़की

सपने वाली "कल्पना" 











सपने में आई एक लड़की
अनदेखी सी
अनजानी सी
पर लगती थी
पहचानी सी
बतला रही थी
खिलखिला रही थी
जीने की आरजू जगा रही थी
फेर कर उंगलियाँ बालों में
खूब सारा दुलार लुटा रही थी
बैठाकर फिर मुझे साईकिल पर
मेरे सपनों को पंख लगा रही थी
कुछ दूर चली और बोली
चल साथी ऐसा करते है
किसी चेहरे पर मुस्कान रखते है...........
बहुत दिन हो गए
आसमान को एक ही रंग में रहते
आ अपने सपनों का रंग उस पर रंगते है.....
तलाशता रहा जिसे जिंदगी की गलियों में
ना जाने क्यूँ?
वो सपनो के चौराहों पर
मुस्कराती मिला करती है। 

नोट-ऊपर दी हुई सुंदर फोटो विजेन्द्र जी के हाथों का कमाल है। आप उनकी लेखनी और पेंटिग्स का आनंद लेना चाहते है तो http://vijendrasvij.blogspot.com/ पर चटका लगाकर ले सकते है। विज भाई का बहुत शुक्रिया।

Saturday, November 7, 2009

प्रभाष जी, क्या सचमुच आप इस रविवार "कागद कारे" लेकर नही आऐंगे?

रविवार की सुबह "कागद कारे" का ऐसे इंतजार होता था।  
रविवार की सुबह देर तक मैं चाहकर भी सो नही पाता। क्योंकि रविवार है। और किसी चीज का इंतजार है। आँख खुलते ही मुँह से आवाज निकलती है पेपर। नीचे से कोई पेपर लेकर आता। पाँच पेपरों में से जिस पेपर की तलाश है उसे सबसे पहले निकाल संपादकीय पेज खोलता हूँ। जिस रविवार यह पेपर नही मिलता तो सुबह बासी सी लगती है। फिर बस एक आवाज निकलती है "जीतू"(छोटा भाई) वो पेपर कहाँ है।" नीचे से ही आवाज आती है "आज नही आया, पेपर वाला कह रहा था कि आज ये पेपर नही आया।" (पेपर वाला अक्सर यह पेपर नही लाता) मैं बिस्तर से निकल पड़ता हूँ। ना बाथरुम जाने की जरुरत, ना ही टूथ ब्रश करने की जरुरत। और ना ही नाशता करने की इच्छा। बस एक ही काम कि ये पेपर कैसे लाया जाए। फिर से जीतू को आवाज लगती। और वो पैर पटकता हुआ आता है और पैसे लेकर पेपर लाने के लिए बाईक से निकल जाता है। अक्सर घर में चर्चा रहती है कि ऐसा क्या है इस पेपर में जो हमें धक्के खाने पड़ते है। जब तक पेपर नही आऐगा ये बैचेन क्यों रहता है? थोडी देर बाद मेरी आवाज फिर से गूँजती है "क्या हुआ अभी तक पेपर नही आया। कितनी देर हो गई। पेपर लेने गया है या अमेरिका गया है। कल से इस पेपर वाले को बदल दो, .... एक यही पेपर नही लाता बाकी सब ले आता है, नही चाहिए मुझे ऐसा पेपरवाला.....................। फिर घर का एक सदस्य कहेगा कि "तसल्ली भी रखा करो।" फिर दूसरा सदस्य कहेगा "पेपर पेपर पेपर..., पेपर हो गए या ......."पर माँ तो माँ होती है ना" आ गई अपने बड़े बेटे का पक्ष लेने। और बोलने लगेगी "एक पेपर नही ला सकते तुम, मैं तो अनपढ ठहरी, नही तो खुद जाकर ले लाती।" वो पेपर कोई और नही "जनसत्ता" है। और उस पेपर के जिस कालम को पढने के लिए मैं सुबह सुबह बैचेन रहता हूँ वो कालम है "कागद कारे" बाकी के सारे काम इसको पढने के बाद .................

आज का दिन

आज "जनसत्ता" आया हुआ है। पर प्रभाष जी के जाने की खबर सुबह किसी समाचार चैनल से मिली। एकदम से स्तम्भ रह गया। और एकटक टीवी को देखता रहा। पर फिर अपनी भावानाओं पर काबू पाया। ना जाने कैसा रिश्ता था मेरा और उनका। कभी कभी सोचता हूँ तो लगता है कि शब्दों और विचारों का एक रिश्ता है। एक भावनात्मक रिश्ता। पता नही कब कैसे "कागद कारे" से परिचय हुआ और एक रिशतें में बदल गया। उनके लिखे "कागद कारे" कभी होंसला दे जाते, कभी कुछ सीखा जाते, कभी अनदेखी तस्वीर को देखा जाते, कभी आँखो में आँशु ले आते और कभी जीने का जज़्बा दे जाते। उनके लिखे शब्दों से मिट्टी की खूशबू आती है। उनका "अपन" शब्द अपना सा लगता है। उनकी खरी खरी बातों ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगो की जमीन को हिला जाती है। पता नही उनके लिखे कितने लेखों की कटिंग आज भी फाईल में लगी हुई है। आज जब उस फाईल को निकाला तो उनके शब्दों और विचारों की लहरों में बहता चला गया। कई बार प्रभाष जी से आमना सामना पर कभी बात नही हुई। सोच रहा हूँ कि परसो रविवार है। क्या सचमुच "कागद कारे" नही आऐगा? क्या अब भी मैं रविवार की सुबह का बेसर्बी से इंतजार करुँगा? उस बैचेनी का अब क्या होगा? प्रभाष जी अब कौन हर रविवार सुबह मेरे संग बैठकर चाय पीऐगा। इस रविवार सुबह जनसत्ता तो आऐगा, प्रभाष जी क्या आप सचमुच नही आऐंगे?...................................

प्रभाष जी की खरी खरी जिसके हम कायल थे।


कहते है आज अगर बालको उधोग खड़ा किया जाता तो उसमें कम से कम पाँच हजार करोड़ रुपय लगते। बालको के इक्यावन प्रतिशत शेयर यानी उसकों चलाने की मिलकियत और उस पर नियंत्रण साढे पाँच सौ करोड रुपयों में स्टारलाइट कंपनी को सौंप दिया गया। इस उधोग के पास अपने दो बिजली घर है जिनमें प्रत्येक पाँच सौ करोड़ का माना जाता है। विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने सब आंकड़े बताए लेकिन मानने वाले नहीं मानते कि यह सौदा साफ और पारदर्शी है। छतीशगढ के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री निवास के एक असंवैधानिक सत्ता केंद्र ने सौ करोड़ रुपय इस सौदे में लिए है। लेकिन अरुण शौरी इसे बकवास बताते है। वीपी सिंह और बोफर्स वीर अरुण शौरी अब तक नहीं बता सके कि वे चौंसठ करोड़ किसने खाए? पंद्रह साल हो गए। लेकिन बालको के सौदे में कोई गडबड वे नही देखते। अरुण शौरी जब पत्रकार हुआ करते थे तो गाँधी के लंबे-लंबे उद्धरण दे-देकर राजनेताओं को कोड़े मारा करते थे। क्या बालको स्टरलाइट कंपनी को इसलिए सौंपा गया है कि उसके मालिक ने गाँधी के टृस्टीशिप सिद्धांत को मान लिया है? तब एक लेख में नेताओं को दुतकारते हुए अरुण शौरी ने लिखा था- काके ये थूक के चाट जाएंगे। उनके मुहावरे और मंतव्य को अब उन्हीं पर लागू किया जाए तो कहना पड़ॆगा- काके, ये विश्व बैंक के पले-पनपे एडम स्मिथ के सपूत है। ये गाँधी को थूक कर हेडगेवार को चाट जाएंगे। बालको, तुम देखना ये बड़ी ईमानदारी से देश को बेच खाएंगे।


नोट- ऊपर बाक्स में लिखा हुआ अंश प्रभाष जी के एक लेख से लिया गया है जो जनसत्ता में छपा था। जिसकी कटिंग मेरे पास है और वहाँ से उतारा गया है। इसलिए "जनसत्ता" पेपर का शुक्रिया। और फोटो गूगल और रविवार डाट काम से लिया गया है। साथ ही ये पोस्ट कल लिखी गई थी पर किन्हीं कारणों से आज पोस्ट की जा रही है।

Monday, November 2, 2009

जिंदगी के रंग- विजय जी के संग

जिंदगी खूबसूरत रंगो से भरी हुई है। हर रंग निराला है, प्यारा है। और हर रंग हर दूसरे से जुड़ा हुआ है जैसे सुख से दुख। इसलिए जिंदगी में संघर्ष के रंग के बाद खुशी का रंग आता है। और जीवन में रस घोल जाता है। आज हम भी आ गए अपनी जिदंगी के रंगो को लेकर।




संघर्ष का रंग : बुर्जुगों की दुआ काम कर जाती है। 

बात बहुत साल पहले की है. जब मैं पढाई किया करता था और किराये के घर पर रहता था. उस घर में अक्सर बिजली नही रहती थी तब मैं रात को स्ट्रीट लाईट  के नीचे बैठकर पढाई करता था. और सपने देखा करता था। ऐसे ही एक दिन मैं पढ़ रहा था तो एक बुढा बाबा आया और मेरे पास बैठाकर बातें करने लगा. हम कुछ बात कर रहे थे. रात को मैं चाय पीने ,पास के मोहल्ले की एक कैंटीन में जाता था . उस दिन उस बुढे के लिए भी चाय ले आया . थोडी देर बाद मैंने ऊपर स्ट्रीट लाईट को देख कर उस से कहापता नहीं मैं अपने घर की बिजली में कब पढ़ पाऊंगा....... उस बुढे ने मेरे सर पर हाथ फेरा और कहा , फ़िक्र न कर बेटा , एक दिन तू इन्ही खम्बों को बिजली बेचेंगा. मैं हंस पढ़ा .....और उससे कहा कि ये होने वाला नहीं है .. बुढे ने हंसते हुए कहाहोंगा. देखते रह, जरुर होंगा. आज करीब २० बरस बाद मैं अपनी कंपनी के बने हुए लाईटिंग स्टिम बहुत से मुनिस्पल कारपोरेशन को बेचता हूँ तो उस बुढे बाबा की याद आ जाती है. और मुँह से ये ही शब्द निकलते है। 


ज़िन्दगी के अपने जादू होते है और सपने यही इसी दुनिया में सच होते है......”



शब्दों का रंग : गाँधी जी के संग|

"Be the change you want to see in the world."
                                           Mahatma Gandhi



हंसी का रंग : इस फिल्म के गायक हम है।

दोस्तों, मेरे जीवन की दो लाइफलाइंस है, एक म्यूजिक और दूसरा कॉमेडी. मैं हर परिस्थिती में कॉमेडी देख लेता हूँ. एक वाक्या बताता हूँ. मैं Mining Engineering कर रहा था. हम सब Civil Engineering की लड़कियों पर खूब मरते थे. मैं तब बहुत अच्छा गाना गाता था. मेरे क्लास का एक बन्दा सिविल की एक लड़की पर मरता था. उसने कहा कि यार मैं Lip-Movement करूँगा, तुम गा लेना. मैं तैयार हो गया. हम लड़कियों के रूम के सामने पहुँच गए और उस लड़की को देखकर गाने लग गाये. “प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है.........”लड़की दूर थी, वो सोची की यही बन्दा गा रहा है. वो खुश, बन्दा खुश, हमारी टीम खुश. अचानक , इस बन्दे को खांसी आ गयी. वो खांसने लगा, और मेरा गाना चालू ही था. जब तक उसकी खांसी रूकती और मुझे बात समझ में आती तब तक गाने का अन्तरा ख़त्म हो चुका था . और लड़की को सब कुछ पता चल गया था. वो बाहर आई, बन्दे को, मुझे और सारी टोली को खूब खरी खरी बाते सुनाई. और आज उन पलों को याद करता हूँ तो आज भी हँसी छूट जाती है।

विजय जी के ब्लोग का पता- विजय जी की कविताएं

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