Monday, October 26, 2009

अब वह मरीज कभी दरवाजा खटखटाने नहीं आएगा।

लतिका रेणु जी का फणीश्वरनाथ 'रेणु' जी पर लिखा अंतरंग संस्मरण ।

भागलपुर जेल से कुछ राजनीतिक-बन्दी पटना अस्पताल में इलाज के लिए भेजे गए थे। मैं यहाँ नर्स-इंचार्ज थी। थोडे दिनों में इलाज कराकर वापस भेज दिए गए। एक दिन वार्ड का चक्कर लगाते हुए देखती हूँ, भागलपुर जेल से आए कुछ सिपाही आपस में गप्पें मार रहे है। मैंने उनसे पूछा, "आप लोगो के साहब लोग तो चले गए, फिर आप सब अब तक यही हैं?" "एक साहब अभी है" एक सिपाही ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा। मैंने देखा एक बढ़ी दाढी और बालवाला दुबला-पतला नौजवान आँखे बन्द किए पड़ा है। मेरे कुछ पूछने पर उसने आँखें खोलीं, और मुझे मिनटों देखता रहा। कुछ बोला नहीं। मैं आगे बढ गई। शाम को एक नर्स ने आकर बताया- भागलपुर जेल से आया राजयक्ष्मा का वह बन्दी मरीज मेरे बारे पूछ रहा था। पहले तो मरीज खुद ही पूछ लिया करता था, बाद में कुछ स्वास्थ्य सुधरा तो पर्ची पर लिखकर किसी के मार्फत भिजवाता-" आप मुझे देखने क्यों नही आतीं।" मैं जाती। बहुत पूछने पर अपनी तबीयत के बारें में दो एक बात बतलाता और चुप। उसकी आँखो में जी पाने की लालसा झलकती होती थी और कई बार तो उस मासूम से चेहरे को देखकर मैं सोचती यह आदमी, इस कदकाठी और उम्र का क्रांतिकारी भी हो सकता है? डा. बनर्जी की देखरेख में मरीज एक दिन ठीक-ठाक होकर वापस भेज दिया गया। बाद को, साल छह महीने में कभी अस्पताल में ही वह दिख जाता। देखकर सोचती, किसी को देखने आया होगा, लेकिन तब क्या जानती थी कि वह मुझे ही देखने पूर्णिया से यहाँ चला आता है। बस, वैसे ही चुप, नि:शब्द वार्ड के इधर-उधर विचरकर वापस हो जाता। कभी नजरें मिलतीं तो मैं महज औपचारिकतावश पूछ लिया करती,"आपनी ठीक-ठाक तो?" " हाँ..." बहुत संक्षिप्त सा उत्तर। एक बार मिला तो कहने लगा-" देखिए, मैं स्वस्थ नजर आने लगा हूँ न? डाक्टर ने कहा था, घर जाकर खूब आम, दही, दूध, मछली खाओ, सो मैंने अपनी खुराक बढ़ा दी है और ....... मरीज सचमुच स्वस्थ नजर आ रहा था। मैंने कहा " इसी तरह खाने पीने पर ध्यान रखना होगा।" और वह हँसने लगा था। चार वर्ष बाद एक दिन एक नर्स ने मुझे एक पुर्जा थमाया-" मैं फिर बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हूँ, आप मुझे देखने नही आएँगी?" और देखने गई, सुना बीमारी अबकी बढ गई है, मुँह से खून गिरता है, मैंने कहा-" आपने बदपरहेजी की?" " इस बार मैं बचूँगा नहीं" -मेरे सवाल के बदले हताश होकर उसने कहा। तो मैंने सांत्वना दी-" ठीक-ठाक रहिए, आप जरुर बचेंग़े" जाने दुबारा उसे देखकर मन को कैसा तो लगा था, शायद यही कुछ कि इसे बचना चाहिए। पिछली बीमारी से वापस जाने के बाद, बीच-बीच में उसका आकर मिलना, अपने स्वास्थय के बारें मेरे हल्के फुल्के निष्कषों पर खुश होना उसे अच्छा लगता था और अच्छी लगने वाली उस बात ने ही शायद उसके मन में मेरे लिए स्नेह के बीज बो दिए थे। दुबारा भर्ती होने पर मेरी सांत्वना के बदले कहा- " इस बार बच गया तो फिर जीवन में कभी बदपरहेजी नहीं करुँगा।"

उसके ठीक-ठाक होकर अस्पताल से निकलने तक जाने क्यों मेरे मन में भी मोह पैदा हो गया, और हम दोनों एक-दूसरे को ज्यादा समझने लगे थे। वह अनजान मरीज मेरे मन में अपने लिए श्रद्धा जगाकर खुद वह यह पालने लगा था कि मरणांतक दौरे से उसे डाक्टर और दवा ने नही, मैंने बचाया है। वह वापस अपने गाँव लौट गया। इस बार बीच-बीच में उसके पत्र मिलते रहे। कभी मैं भी लिख देती। फिर एक दिन परिवार वाले उसे अस्पताल ले आए। सुन-देख कर पहले तो गुस्सा आया लेकिन उसका सूना, सपाट और म्लान चेहरा देख, खुद ही सहम गई। "इस बार, अब और बचने की उम्मीद नहीं"- मेरे आक्रोश के बदले उसकी आँखो से आँसू झरने लगे थे। होंठ नि:शब्द। एकांत मे जाकर आदिशक्ति माँ को याद किया-"या तो इसे पूर्ण स्वस्थ कर दो, या उठा लो माँ। बार बार क्यों?" पिछले वर्षों में आत्मीयता का एक रिश्ता जुड़ा था सो साधिकार डाँटा-डपटा-" हर बार मरने लगते हो तो यहीं एक जगह देखी है?" "और कहाँ जाऊँ?" भरे गले से उसकी आवाज निकली थी। नही कह सकती, उसके इस एक वाक्य ने मुझे किस गहराई तक बाँध डाला था मैं करती भी क्या सेवा में जुटी। डयूटी के अलावा जो समय बचता, उसी के पास बैठी होती। अपने हाथ का बना खाना उसे खिलाती, उसके कपड़ॆ, शरीर साफ करती, उसके लिए प्रार्थनाएँ करती-बचा लो माँ। और बचा, यानी स्वस्थ हुआ तो एक दिन जिद पकड़ बैठा-" अब कहीं नहीं जाऊँगा। यही रहूँगा, तुम्हारे पास।" मैंने समझा, भावुकता में बोल रहा है।  एक शाम डेरे से खाना लेकर अस्पताल जाने की तैयारी में थी, कि वह अपना सामान रिक्शा पर लादे पहुँचा-"अस्पताल से डिस्चार्ज-सर्टिफिकेट ले लिया है, और सचमुच मुझे अब कहीं नहीं जाना है।" उस बाल सुलभ जिद का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था- ठीक है बाबा। शादी की बात तय हुई तो मैंने अपने बड़े भाई को खबर की। उन्हें सारी जानकारी मिली तो समझाया-" इतने भयानक मरीज के साथ शादी मत करो।" लेकिन मुझे अपने निर्णय पर अडिग देख वह झुके और 5 फरवरी 1952 को मेरे मकान पर हम दोनों की विधिवत शादी हो गई। शादी के दिन उनकी शारीरिक हालत कैसी थी -जानते है "इतने कमजोर, कि शादी की तमाम रस्में उन्होंने दीवार से टिककर पूरी कीं। हम कुछ महीनों के लिए औराही-हिंगना गए। मैंने पहली बार उनका गाँव-घर देखा। पटना आए तो जिद पकड़ ली- "तुम नौकरी छोड़ दो।" लेकिन जब तक कोई आर्थिक विकल्प नहीं मिलता, मैं नौकरी कैसे छोड़ देती? अजीब पसोपेश में थी कि एक दिन उन्होंने फैसला सुनाया-" अब मैं लिखूँगा। जीने के लिए विकल्प तो ढूढ्ना ही होगा, लेकिन मुझे तुम्हारी नौकरी पसन्द नहीं।" और "मैला आँचल" लिखने की शुरुआत वहीं हुई- सब्जी बाग स्थित मकान पर। "मैला आँचल" के डा. प्रशांत की कल्पना उन्होंने डा. प्रसून बनर्जी- डा. टी.एन. बनर्जी के लड़के, जो तब हाऊस सर्जन थे, के व्यक्तितव, चलने, हँसने, बोलने के अन्दाज से ली। ममता के रुप में मुझे खींचा और कमली के रुप में गाँव वाली पत्नी पदमा जी को। बाकी की पृष्ठभूमि रही उनका ग्रामीण क्षेत्र। एक वर्ष में जब लेखन पूरा हो गया तब समस्या खड़ी हुई उसके प्रकाशन की। उन दिनों यहाँ रामेश्वर बाबू का यूनियन प्रेस हुआ करता था। तय हुआ, खुद ही छापेंगे। रामेश्वर बाबू छापने पर सहमत हुए। शर्त यह रखी गई कि सात सौ रुपए का कागज पहले देंगे, छपाई के नौ सौ रुपय धीरे धीरे उपनयास बेच कर सधा देंगे। और "मैला आँचल" छप गया।

छपने के बाद रामेशवर बाबू के पैंतरे बदले। कहा, रुपए दीजिए तब उपन्यास को हाथ लगाने देंगे। एक शाम लौटे तो दुखी थे- "मैला आँचल" बिक रहा है, और मुझे बताया नहीं जाता। कोई बात नहीं, दूसरा लिख दूँग़ा। मैंने कोई सलाह दी तो खीझ उठे- "पैसा ही तुम्हारे पास कि बची प्रतियाँ उठा लाऊँ? दो हजार रुपए की माँग करते हैं वे।" मैंने इधर उधर से रुपए जुगाड किए और 'मैला आँचल' की सही सलामत और दीमक खाई प्रतियाँ तक घर में रख दी गई। एक दोपहर राजकमल प्रकाशन के मालिक ओमप्रकाश जी घर ढूँढ़ते हुए पहुँचे। रेणु थे नहीं, ओमप्रकाश जी स्लिप छोड़कर चले गए- "वह आएँ तो कहिऐगा, मैं डेढ़ दो घंटे में फिर आऊँगा। दिल्ली से उन्हीं से मिलने आया हूँ। लौटे तो ओमप्रकाश जी की स्लिप देखकर कूदने लगे " बहुत बड़े प्रकाशक 'मैला आँचल' छापने की अनुमति लेने आए हैं।" शाम को ओमप्रकाश जी, मैं और इनमें बातचीत हो ही रही थी कि नागार्जुन जी श्री श्यामू सन्यासी को लेकर पहुँचे। 'मैला आँचल' इन्हें चाहिए। और लीजिए, मोल-भाव शुरु। दो दो प्रकाशक इकटठे - किस दें न दें। वह मुझे अन्दर के कमरे में ले गए। कहा- फैसला तुम्हीं पर छोड़ दूँगा। तुम्हारा पैसा लगा है। कहना-'मैला आँचल' हम ओमप्रकाश जी को ही देंगे। बाहर आकर कहा- "छपवाने में सारा पैसा लतिका जी का खर्च हुआ है, सो यही जाने, किसे देंगी।" मैंने फैसला सुनाया तो नागार्जुन जी दुखी हुए। सन्यासी जी दुगनी रायल्टी देने पर तैयार हो गए, लेकिन मैने कहा- "जो हो गया, हो गया।" और रात को ओमप्रकाश जी ने बची प्रतियों का बंडल बाँधा, रिक्शे पर लादा, स्टेशन चले गए। इस तरह वह उपन्यास लोगों के सामने आया। 1973 में दिल्ली गए। डा आत्मप्रकाश ने इलाज किया। कहा आपरेशन करवा लीजिए। वापिस आए तो चीर-फाड़ के डर से फिर वहाँ नही गए। 4 नवम्बर को घर जाने लगे। मैंने कहा -"आज गुरुवार है, यात्रा पर निकलना शुभ नहीं।" "घर जाने में यात्रा का शुभ अशुभ कैसा?" कहकर मुझे तो चुप कर दिया, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ था। अच्छे बुरे का योग मानने वाले उनको आज यह कैंसी झक सवार हो गई? शुभ अशुभ बहुत मानते थे। घर गए तो चुप्पी लगा दी- न चिट्ठी न पत्री। जैसी पुरानी आदत थी। किसी ने आकर खबर दी, गाँव में बुरी तरह बीमार है, फार्बिसगंज लाया गया है खून चढ़ाया जा रहा है। बाद को टैक्सी में पटना लाए गए। देखा- स्लाइन की बोतलें साथ लगी हैं, साथ में डाक्टर, कम्पाउण्डर, घर का नौकर, दो एक और लोग। पेट कड़ा हो गया था, पाखाना-पेशाब बन्द। डाक्टर ने कहा है "तुरंत आपरेशन।" तो मन में हुआ इतनी जल्दी आपरेशन क्यों? थोड़ा ठहर लेते हैं। 1969 में भी हालत ऐसी ही हो गई थी- लगातार तीन दिन, तीन रात हिचकी आती रही, खून-ग्लूकोज चढ़ाया गया तो ठीक हो गये। इस बार भी मैंने ग्लूकोज चढ़्वाया तो पेशाब हुआ। लगा ठीक हो रहे हैं। पर होमोग्लोबिन बहुत कम था। डाक्टर ने कहा " होमोग्लोबिन सौ प्रतिशत हो जाए तब आपरेशन करेंगे।" हीमोग्लोबिन ठीक हुआ तो आपरेशन की तारीख तय कर दी गई। चुनाव की घोषणा हो चुकी थी, सो कहा- अब चुनाव के बाद ही। आपरेशन की तारीख से पहले अस्पताल से भागकर डेरे आ गए। काफी हाऊस जाना, चुनाव-कार्यालय में बैठना। चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित थे। चार दिनों तक यह सब चला और फिर पाँचवे दिन उल्टी शुरु। फिर अस्पताल पहुँचाया गया। आपरेशन से बहुत डरते थे, सो इरादा था किसी तरह छुटकारा मिले, लेकिन कष्ट बढ़ा तो कहा- "नहीं, अब करा ही दूँगा।"

डाक्टर से 24 अप्रैल की तारीख तय कर दी। 24 तारीख गुरुवार था। मैंने याद दिलाया तो बोलें- "कोई बात नहीं, हो लेने दो। मुझे कुछ नहीं होगा।" ऊपर-ऊपर बुलन्दी थी लेकिन अन्दर ही अन्दर नर्वस हो रहे थे। सुबह में कहा-" कोकाकोला पीऊँगा।" मैंने मना किया। "कोकाकोला पी लेने में क्या है? आपरेशन में तो पेट चीर कर डाक्टर निकाल ही देगा।" फिर भी मैंने नहीं दिया तो बोले-"रामवचन जी को कह दिया है, आइसबैग ले आने को। कोकाकोला उसमें रखना, होश आने पर पीऊँग़ा।" और होश क्यों कर आता? सप्ताह से ज्यादा बेहोशी की हालत में गुजर गए तो एक दिन कोकाकोला की दो चार बूँदे मैंने होठों पर टपकाई। वे इधर उधर होकर फैल गई। उसके खाने पीने की बच्चों वाली जिद। क्या कहूँ? दो चार दिन बीमार होकर उठते तो जिद पकड़ लेते- कई दिन हो गए चिकन मँगवाओ। नहीं मँगवाओ तो पथ्य नहीं लूँगा, यह नहीं खाऊँगा, वह नहीं खाऊँगा और न जाने क्या क्या ......... अब सोचती हूँ तो लगता है अब से तैंतीस वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े एक मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। यह नहीं कहती कि उसे जीवन दिया था। मैं ऐसा कहने वाली कौन होती हूँ? तब से लेकर आज 11 अप्रैल की 1977 रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंतत: वह चला गया। मैं किससे कहूँ कि इतने वर्षों की इस सेवा ने मुझे क्या दिया? जब तक जीवित हूँ, उनकी याद सेती रहूँगी- दो कमरों का यह फ्लैट , दीवारों पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान और पुस्तकें...... यही सब छोड़ कर तो गए हैं वह - पिछले तैंतीस वर्षों की भुलाई न भूलने वाली यादें। आज भी लोग आते है। दरवाजे की कुण्डी खटकती है लगता है शायद वह ही हों।
"के?".............. पूछती हूँ।
जवाब में "आमि.... आमरा....... जैसे शब्द नहीं होते। अब वह मरीज कभी यह दरवाजा खटखटाने नहीं आएगा। दरवाजा, चाहे तीमारदार लतिका का हो, या खुद फणीश्वरनाथ 'रेणु' का।

नोट- लतिका रेणु जी का फणीश्वरनाथ 'रेणु' जी पर लिखा यह अंतरंग संस्मरण "रेणु का जीवन" किताब से लिया गया है जिसका संपादन किया है "भारत यायावर जी" ने और छापा है "वाणी प्रकाशन" ने। इन सबका शुक्रिया कहते हुए साथ में माफी भी चाहूँगा क्योंकि पोस्ट ज्यादा बड़ी हो रही थी इसलिए कुछ लाईनों को हटाना पड़ा। पर जब से इस संस्मरण को पढ़ा तो तब से बैचेन हो रहा था इसे ब्लोग साथियों से बाँटने के लिए।

एक सूचना- आगे से "जिदंग़ी के रंग" वाली पोस्ट महीने के पहले और तीसरे सोमवार को ही पेश की जाऐगी।

Monday, October 12, 2009

जिंदगी के रंग - मीत जी के संग़

आज मीत जी अपनी "जिंदगी के रंगो" से हमें मिलवा रहे है। 

जिंदगी रंग बिरंगी 


ज़िन्दगी में रंग ही रंग भरे हुए हैं. अगर ये रंग ज़िन्दगी से निकाल दिए जाएँ, तो फिर जीवन का मतलब ही कुछ नहीं रह जायेगा. इन्हीं रंगों को हम दर्द, ख़ुशी, गम, आँसू, और संघर्ष जैसे नामों से पुकारते हैं.....  हर इंसान की ज़िन्दगी में कभी ना कभी ऐसा मोड़ आता है जब वो अपने जीवन में हो रही घटनाओ के सामने मजबूर सा महसूस करने लगता है. उस पल उसे लगता है कि उसने यह जन्म लिया ही क्यों? लेकिन फिर उसी पल एक नयी तुलिका उसके जीवन में एक नया रंग भर देती है. और वह उसी रंग से अपनी जिदंगी की पेटिंग्स में खुशियों के रंग भरने लगता है.

संघर्ष का रंग- कोशिश करने वालों का साथ भगवान भी देता है.

जब मैं रोजगार के लिए संघर्ष कर रहा था. एक नौकरी की तलाश के लिए सुबह घर से निकल जाना और शाम को खाली हाथ लौट आना. रोज की यह दैनिकचर्या मुझे अंदर ही अदंर घुन की तरह खाए जा रही थी. मम्मी पापा के चेहरो पर उदासी का रंग देखा नही जाता था. शायद ज़िन्दगी के दुखों ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए थे. पता नही क्या क्या सोचते हुए पूरी रात यूँ ही बीत जाती थी. और फिर सुबह वही नौकरी की तलाश के लिए दिल्ली की गलियों में भटकना. पर कुछ दिनों के बाद दिल्ली पुलिस की भर्ती की सूचना का दीपक सूरज सा उजाला लेके आया. मैंने दिल्ली पुलिस भर्ती के लिए फार्म भर दिया. मन ही मन में खुद को हर पल पुलिस वर्दी में देखने लगा. रोज सुबह उठकर दौड़ने जाने लगा. पर एक दिन मुसीबत से भरी बिजली फिर से गिर पड़ी. मेरे फिजिकल टेस्ट से कुछ दिन पहले ही प्रेक्टिस के दौरान दौड़ते समय मेरे पांव में मोच आ गयी. मुझे लगा की जैसे भगवान मेरे साथ यह सब जानबूझकर कर रहे हैं. मैंने गुस्से में प्रेक्टिस बँद कर दी. टेस्ट में अब 5 दिन बाकि थे. एक दिन मैं घर से टहलने के लिए निकला. घर के सामने ही काफी बड़ा पार्क हैं, मैं पार्क में जाकर बैठ गया, वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे, उन्हीं को देखने लगा. कुछ दी दूरी पर एक लड़की अपनी माँ के साथ बैठी थी. उस लड़की के पाँव में कुछ तकलीफ थी, क्योंकि वो ठीक से चल नहीं पा रही थी. शायद यह परेशानी उसे जन्म से थी. मैं भगवान को कोसता हुआ अपने टेस्ट के बारे में सोच रहा था. तभी कुछ २-३ उच्चकों (अफीमचीयों) ने उस लड़की की माँ का मंगलसूत्र खींचा और वहाँ से भागने लगे. मैं देख कर हैरान रह गया कि जो लड़की ठीक से चल भी नहीं सकती थी. वो मुश्किल से भागी और एक को पकड़ लिया. कुछ पल के लिए हाथापाई भी हुई। यह देखकर आसपास के लोग मदद के लिए आ गए. कुछ देर बाद पुलिस भी आ गई और चोर उच्चके को अपने साथ ले गई. शाम को मैं फिर से पार्क गया. वो लड़की और उसकी माँ अब भी टहलने आये थे. मैंने उस लड़की के पास जाकर उस से बात की. मैंने कहा की आपको डर नहीं लगा अगर वो चोर आपको नुकसान पहुँचा देता तो? वो बोली- नुक्सान पहुँचा देता तो पहुँचा देता. मैंने कहा "आप मदद के लिए शोर मचा सकती थी." वो बोली- भगवान भी उसी की मदद करता है, जो कोशिश करता है. मैंने कोशिश की और देखो भगवान ने मेरी मदद की. वो देखो मेरी माँ के गले में मंगलसूत्र .... उसके उन शब्दों ने मेरी सोच को ही बदल दिया. अब वही पार्क था, वही लड़की थी, वही उसकी माँ थी और उसकी माँ के गले में उस लड़की के संघर्ष द्बारा वापस दिलाया हुआ मंगलसूत्र चमक रहा था. साथ ही मैं भी वही था लेकिन अब मेरे मन में वो भावनाएं नहीं थी, जो सुबह तक थी. मैं मन ही मन निश्चय कर चुका था कि बेशक दौड़ में अंतिम ही क्यों ना आँऊ, पर दौडूंगा जरुर. मैं दोड़ा और छ्ठे स्थान पर भी आया। मुझे दौड़ते वक्त पाँव में बेहद दर्द हुआ, लेकिन दौड़ में छठा स्थान प्राप्त करने के बाद भी जो अनुभूति, जो एहसास, जो ख़ुशी आज तक मेरे दिल में बसी है वो शायद मरते दम तक यूँ ही रहेगी और साथ में उस लड़की द्वारा कही गयी बात भी कि - भगवान भी उसी की मदद करता है, जो कोशिश करता है. मैंने कोशिश की और देखो भगवान ने मेरी मदद की. और ज़िन्दगी का एक रंग और देखिए कि आज में एक पुलिसवाला ना होकर एक डिजाइनर हूँ.


शब्दों का रंग-सूरज का टुकड़ा


"तोड़ के सूरज का टुकड़ा,
ओप में ले आऊं मैं!
हो जलन हांथों में, तो क्या!
कुछ अँधेरा कम तो हो..
                         मीत


हँसी का रंग- एक युवराज इधर भी 

मोरी गेट के क्रिकेट ग्राउंड से लगा हुआ एक गर्ल्स इंजीनियरिंग कालेज है. अपने २-3 मैच से ही मैंने वहाँ युवराज की तरह काफी नाम कमा लिया था :) लड़कियाँ मुझे पहचानने लगी थी " यही है वो जिसने उस दिन ८० गेंदों में ११९ रन बनाये थे." एक सुन्दर सी लड़की की सुरीली आवाज कानों में पड़ी थी. उस दिन भी हमारा मैच था. पहले फिल्डिंग करनी थी, मैं थर्ड मेन पर फिल्डिंग कर रहा था, उस दिन भी लड़कियाँ हमारा मैच (खासकर मेरा मैच) देखने के लिए ग्राउंड की दीवार पर बैठी थी. उस दिन ग्राउँड में बरसात की वजह से जगह जगह काफी कीचड़ था.... जहाँ मैं फिल्डिंग कर रहा था वहाँ भी छोटे-छोटे गड्ढों में कीचड का पानी था. मेरी हर फिल्डिंग पर लड़कियाँ तालियाँ बजा रहीं थी. तभी मेरे पास एक बहुत मुश्किल कैच आया जिसे मैंने ना जाने कैसे लपक लिया...लड़कियाँ उछल-उछल कर मेरे लिए तालियाँ बजा रही थी और वेव्स कर रही थी. मैं भी ख़ुशी से उन्हें वेव्स करते हुए पीछे की ओर चल रहा था, मैं वेव्स करते हुए भूल गया कि ग्राउंड में पानी भरा हुआ है कई लड़कियाँ मुझे इशारे से समझा भी रहीं थी पर मैं अति उत्साह में ध्यान ही नहीं दे पाया और कीचड़ से भरे हुए पानी के गड्ढे में गिर गया.. मेरी पूरी सफेद ड्रेस कीचड़ से सन गई...और चारो तरफ सब हँसने लगे. वही बैठी लड़कियों की हँसी जो फूटी बस पूछो मत. शायद उनकी हँसी की आवाज आप तक भी पहुँच रही होगी......

मीत जी के ब्लोग का डाक पता तुम्हारा मीत

Monday, October 5, 2009

जिंदगी के रंग अनिल जी के संग।

आज अनिल जी अपनी "ज़िदगी के रंगो" से हमारी मुलाकात करा रहे हैं।


जीने के लिए साँसों की जरूरत होती है, हर एक नया पल जीने के लिए आपको नयी साँसे चाहिए और अगर आपको किसी एक ऐसी छोटी सी जगह बँद कर दिया जाए जहाँ साँस लेने के लिए कोई आवागमन न हो, उस पर से एक दो महीने के बाद बारीक छेदों को भी धीरे धीरे बंद कर दिया जाने लगे तब या तो आप हार मानकर मौत को गले लगा लो या फिर उसमें नए सुराख बना लो या पुराने बंद सुराखों को पूरी ताकत से खोल दो.

संघर्ष का रंग : "हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहो"


5 साल पहले मेरे लिए भी ऐसा ही हाल था, हाँ ठीक बिल्कुल ऐसा ही. अचानक जिंदगी ने करवट ली और सब कुछ बदल गया. मेरे साथ बस माँ थी, भाई और बहन थे. वो मेरे एम.सी.ए. का अंतिम वर्ष था. और फीस भरने के लिए बस 15 दिन शेष थे, जिनमें से 10 दिन बैंक मैनेजर के सामने लोन के लिए गिड़गिड़ाने में और सगे सम्बन्धियों के मुँह फेरने में जा चुके थे. मैंने भी   सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए हार नहीं मानूँगा. फीस के इंतज़ाम के सिलसिले में मैं अपने एक पुराने दोस्त के पास जाने का कह कर घर से सर्दियों की गुनगुनी धूप में पैंट और शर्ट में निकल गया. जब आगरा पहुँचा तो जिस दोस्त के घर गया था उसके पिताजी का तबाबला हो गया और वो बनारस पहुँच गए थे. उनके पड़ोसियों से उनका पता मालूम किया तो बस इतना पता चला कि दोस्त के पिताजी बनारस के फलाँ पुलिस स्टेशन में हैं. रात के अंधेरे ने अपनी दस्तक देना शुरू कर दिया था. मेरे पास अब एक फूटी कौडी नहीं बची थी. अचानक से मेरे कदम आगरा के रेलवे स्टेशन की ओर मुड़ गए, खाली पेट और खाली जेब के साथ में मरुधर एक्सप्रेस में चढ़ गया जो बनारस जा रही थी. सर्दियों की ठंडी रातों का ट्रेन के जनरल डिब्बे में कैसा एहसास होता है ये मुझे उस रात पता चला जब ठिठुरते-काँपते हुए हाथ पैर और कपड़ो के नाम पर शर्ट-पेंट. मन ही मन ख्याल आता कि घर से गर्म कपड़े पहन कर क्यों ना चला. जब रात को ठंड़ बर्दाश्त से बाहर होने लगी तो सीट के नीचे अखबार बिछा कर लेट गया. चलती हुई ट्रेन की आवाज़ के साथ जब बदन का कोई हिस्सा ट्रेन के लोहे को छू जाता तो जान सी निकल जाती और उस पर से ट्रेन की खुली खिड़कियों से आती हुई हवा. वो रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. जब अगले रोज़ बनारस के रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मुँह में जाने के लिए बस पानी ही था जो मुझे सबसे पहले नसीब हुआ. स्टेशन से बाहर निकल कर उस पुलिस स्टेशन का पता किया जो कि वहाँ से 6-7 किलोमीटर दूर था. वहाँ से तेज़ क़दमों से चलता हुआ मैं उस थाने जैसे तैसे पहुंचा, वहाँ मालूम करने पर पता चला कि सिंह साहब तो दूसरे थाने में चले गए हैं जो वहाँ से 8-9 किलोमीटर दूर था. धक्के खाता हुआ मैं उस थाने पहुंचा और वहाँ मालूम करने पर पता चला कि सिंह साहब तो अपने घर पर होंगे इस वक़्त. उनका घर वहाँ से करीब 4-5 किलोमीटर रहा होगा. कदम ठीक से साथ नहीं दे रहे थे. बुरी तरह से थक गया था बीच रास्ते में कुछ सीढियां थी उन पर बैठ गया. सर को अपने घुटनों में झुकाए. पास ही आकर एक साधू बैठ गया और अपने थैले से निकाल कर कुछ खाने लगा. मेरी नज़र उस पर गयी तो उसने प्रसाद के नाम पर मुझे दो लड्डू दिए. जो उस वक़्त मेरे लिए अमृत सामान थे.कुछ देर बैठे रहने के बाद वहाँ से उठ मैं गिरता पड़ता अपने दोस्त के घर पहुँच गया. उसे मैंने अपने घर के हालात, उन हालातों की वजह बताई और अपने आने का कारण भी बताया. उसने मुझे अगले रोज़ ना जाने कहाँ से लाकर 20,000 रुपये दिए. जो मेरे लिए एक बहुत बड़ी मदद थी. अगले रोज़ जब लौटा तो उसने एक मोटा कम्बल और एक स्वेटर मुझे दिया. इन चंद दिनों के संघर्ष ने मुझे ये सिखा दिया था कि हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहना और संघर्ष करते रहना बहुत जरूरी है.
शब्दों का रंग : संघर्ष और साँसे साथ साथ चलती है। 

 हार को जीत में बदलने के लिए
संघर्ष करते रहना उतना ही जरूरी है
जितना कि साँस लेते रहना"
                       अनिल कान्त  

हँसी का रंग : मिश्रा जी क्या मैं हँस सकता हूँ

हम छटवीं कक्षा में पढ़ते थे. पी.टी. के अध्यापक मिश्रा सर जो कि उप प्रधानाचार्य की हर बात में बिना सोचे समझे हाँ में हाँ मिलाते थे. परीक्षाएं चल रही थीं. कुछ छात्र परीक्षाओं में पानी पीने और मूत्राशय के बहाने नक़ल करने की कोशिश करते. हर कमरे में उप प्रधानाचार्य ने आकर कहा कि मेरी बिना अनुमति के किसी को भी कोई अनुमति न दी जाए.  संयोगवश हमारे कमरे में मिश्रा सर थे. कुछ देर बाद एक लड़के को जो कि दोनों हाथ से लिख सकता था, उसको ना जाने क्या सूझी. वो खड़ा होकर पूँछने लगा कि सर क्या मैं अब बायें हाथ से लिख सकता हूँ. मिश्रा जी ने बिना सोचे समझे बोल दिया कि अभी पूँछ कर आता हूँ और बाहर निकल गए. उनके बाहर जाते ही पूरी क्लास जोर से हँस पड़ी.( अब आप भी हँसने के लिए ये मत कह देना कि मिश्रा जी से पूँछकर आते है।) 


कैसे लगे अनिल जी की ज़िंदगी के रंग। अगर आपको इनकी जिंदगी के और भी रंग देखने है तो मेरा अपना जहान पर घूम आईए।

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