Monday, September 28, 2009

ज़िंदगी के रंग - अमिताभ जी के संग।

आज अमिताभ जी अपनी "ज़िदगी के रंगो" से हमें रु-ब-रु करा रहे हैं।


जीवन का नाम ही संघर्ष है। जो प्रकृति प्रद्त्त सनातन है। इसलिये संघर्ष कब किसका खत्म हुआ जो मेरा होगा। हाँ, इसके रूप में समय के साथ बदलाव आते रहे। पहले खोने के लिये कुछ नहीं था तो संघर्ष में अपना शतप्रतिशत झौक देता था, आज खोने के लिये बहुत कुछ है सो फूँक फूँक कर कदम रखना ही बुद्धिमानी है। आप देखिये कि यह संघर्ष का ही परिणाम है जो आज थोड़ा इत्मिनान से बैठ कर "ज़िंदगी के रंग" के इस नये मँच का श्री गणेश करने लायक हुआ हूँ। जीवन में घटनायें तमाम हैं जो प्रेरणायें बनीं। मुझे लगता है घटनायें ही आदमी को आदमी बनाती हैं। 

संघर्ष का रंग-"बाबु पीठ नहीं दिखाने का" 

बात लगभग 20 साल पहले की है जब मैं मुम्बई आया था। क्यों, कैसे आया? इसके पीछे की कहानी भी नाट्कीय है किंतु वो फिर कभी। दो महीने से एक फिल्मी पत्रिका में बतौर रिपोर्टर कार्य कर रहा था, किंतु मेहनताना नहीं मिल रहा था। रोज़ एक उम्मीद कि आज मिलेगा, किंतु खाली हाथ ही लौटता। जेब में महज 10 रुपये शेष रह गये थे, पिछले तीन दिनो से भूखा था। अपनी भूख और मेहनताने की आस दोनो लगभग मुझे तोड़ती जा रही थी। सुबह से रात हो जाती, खूब लिखता-पढ़ता काम करता, दौड़ता-भागता। किंतु आर्थिक रूप से नतीजे में सिफर ही हाथ लगता। अब अपने शहर लौट जाने का ख़्याल सिर चढ़ने लगा था। एक रात कोई 9 साढ़ॆ नौ बज रहे होंगे मैं ऐसे ही खाली हाथ, थका-हारा, लगभग पस्त हाल में लौट रहा था। 10 रुपये जेब में थे, आज "पंचम पुरी"  (वीटी स्टेशन के सामने सस्ता किंतु फेमस भोजनालय, अब काफी अच्छा निर्माण हो चुका है और थाली की कीमत भी ज्यादा हो गई है, तब लगभग 10 रुपये में थाली मिल जाया करती थी) होटल में डट के खाना खाऊँगा और ट्रेन में बिना टिकट बैठ कर घर लौट जाऊँगा, ख़्याल कर फुटपाथ से गुजर रहा था कि एक कोई 18-19 साल की लड़की एक कोने में बैठ सुबक रही थी। सुन रखा था, इस तरह की लड़कियों और भिखारियों के बारे में कि इनसे बच के रहना। सो अनदेखा कर जाने लगा। फुटपाथ खाली था, उसने पीछे से आकर मेरी शर्ट पकड़ बड़े कातर भाव से देखते हुए कहा 'बाबु कुछ पैसा दे दे।' मैने झिड़कते हुए शर्ट को छुडाया और आगे बढ़ गया। वो पीछे-पीछे। कुछ दूर ऐसा ही चला अंत में मैने डाँटते हुए कहा-'नहीं है पैसा।' वो चुपचाप फिर वहीं जाकर बैठ गई और सुबकने लगी। पता नहीं अपने भोले और नरम दिल की वजह से कुछ आगे जाकर मेरे कदम रुक गये और मैं उसके पास जाकर बोला-' कोई काम वाम नहीं करती क्या, क्यों माँग रही है पैसा, मैं खुद 3 दिनों से भूखा हूँ तो क्या पैसा माँग रहा हूँ?' वो कुछ नहीं बोली। मैने अपनी जेब से वो आखिरी 10 रुपये निकाल कर उसके हाथों में रख दिये और कहा- 'ये ले, और कुछ अच्छा काम करना शुरू कर, भीख मत माँग।' उसने रुपये लेते हुए सामने चल रहे निर्माण कार्य की ओर इशारा करते हुए कहा, 'काम ही करती हूँ बाबु, 5 रोज़ से काम रुका हुआ है, मेरा बाप बीमार है दवा लेनी थी और कोई पैसा नहीं दे रहा, सेठ कहता कि आज लेना, कल लेना। वो देख मेरा बाप वहाँ लेटा है..। 'मैं चुपचाप देखने लगा। उसने अपना बोलना जारी रखा, 'बाबु कल तुझे तेरा पैसा लौटा दूंगी...। 'मैने कहा-' जरुरत नहीं है इसकी, तू रख।' उसने कहा-'बाबु आज और भूखा रह लेना।' मैंने आश्चर्य से उसे देख कर पूछा-'तुझे क्या पता मैं भूखा हूँ।' तो वो हँसते हुए बोली- 'अभी तो तू कह रहा था। तुझे भी पैसा नहीं मिला है न?' उसने पूछा, तो मैंने भी कह दिया-'हाँ, नहीं मिला, और अब तेरी ये बम्बई छोड़ कर जा रहा हूँ।' उसने कहा- 'बाबु हार गया क्या? बाबु पीठ नहीं दिखाने का, पीठ दिखायेगा ना तो मरियल सा कुत्ता भी तुझे काट लेगा, समझा क्या।' मैं हैरत से उसे देखने लगा और हँसते हुए बोला- 'बड़ी बात बोलती है, पढ़ती लिखती भी है क्या?' 'बाबु, फीस होती तो पढती भी।' उसने कहा। 'चल अब जाता हूं, अपने पिता का ख्याल रख।' उसने भी दूसरी दिशा में जाते हुए कहा- 'छोड़ कर भागना मत बाबु, कल फिर पैसा माँग कर देखना अपने सेठ से। 'मैं हँस दिया, और कहने लगा- 'मैं माँगता नहीं..और हाँ कल फिर आऊँगा..2000 रुपये मिलने है, यदि मिले तो तुझे 1000 दूँगा, पढ़ने के लिये, समझी।' उस दिन मैं फिर भूखा रहा और इस उम्मीद के साथ कि आज तो पैमेंट मिल ही जायेगा, तब डट कर अच्छी होटल में खाना खाऊँगा। दूसरे दिन फिर अपने आफिस गया। किंतु फिर वही निराशा। अबके सोच लिया नहीं करुँगा यहाँ काम। दिमाग भारी था, थकान और आस की टूटन। बोझिल मन। लौट रहा था कि सामने वही लड़की आ धमकी जो कल रात मिली थी। 'बाबु ला मेरे एक हज़ार रुपये।' मैं हक्काबक्का उसे देखने लगा, कुछ बोलता इतने में उसने ही मेरी हालत देख कर कहा- 'बाबु ले तेरे 10 रुपये, पहले खाना खा। और मायूस मत हो। जब कमाये तब मुझे पढ़ने के लिये एक हजार दे देना..समझा।' मैने मना करते हुए कहा, 'नहीं लेना मुझे तेरे पैसे.., लेकिन पीठ नहीं दिखाऊँगा..समझी न।' दोनों हँसने लगे। उसने कहा- 'बाबु..तेरे को बुरा नही लगे तो चल अपन साथ में खाना खाते हैं..बाद में तू चले जाना...।' मैंने  पूछा- 'तेरे पिता की हालत कैसी है?' उसने कहा-'ठीक है। और आज मुझे मेरे सेठ ने पैसा भी दे दिया, इसिलिये तो कह रही हूँ चल खाना खायेंगे। बिन्दास रहने का बाबु। लड़ने का। ' भूख से  हालत खराब थी ही, मगर मैंने उसे मना कर दिया और कहा- 'मैं तुझे खिलाऊँगा, कुछ दिन रुक तो। और देखना तुझे पढ़ने के लिये भी पैसा दूँगा ' मैं उसे छोड़ चला गया। फिर कुछ ऐसा रहा कि काम की तलाश और काम की व्यस्तताओं ने मुझे जल्दी उस रास्ते पर जाने नहीं दिया जहाँ वो मिली थी। मगर उसकी बात कानों में गूंजती रही, "बाबु पीठ नहीं दिखाने का।" काम मिला। पद मिला। प्रतिष्ठा मिली। पैसा मिला। किंतु वो उसके बाद से आज तक नहीं मिली। आज भी गुजरता हूँ उस रास्ते से कि कहीं वो मिल जाये मगर उसकी आवाज़ ही कानों से टकराती है-पीठ मत दिखाना। आज तक और अभी तक भी लड़ता हूँ। थकता हूँ। हारता हूँ। मगर पीठ नहीं दिखाता। मैं समझता हूँ घटनायें आदमी को जिन्दा रखती हैं। हौसला देती है। उसे संघर्ष करने की नई दिशायें देती हैं। हारकर बैठ जाना, आदमी की फितरत नहीं है। फितरत तो है कि 'पीठ मत दिखाना'। इसे मैं उस दिन का संयोग मानूं? तो मुझे 'वालतेर' का वाक्य याद आ जाता है।

शब्दों का रंग- "संयोग" 
 
"संयोग एक अर्थहीन शब्द है, अकारण कुछ भी नहीं हो सकता।"
                                                                                     -वालतेर



हँसी का रंग- "गलती इन ढोरों की ही है।"

 अल्हड़, फक्कड़, अलमस्त, हुडदंगी जैसा मस्त जीवन था कालेज जमाने तक। मैं जितना बदमाश, उतने ही कायदे, अनुशासन वाले मेरे बड़ॆ भाईसाहेब। वो साथ रहते तो मुझे शराफत की चादर ओढ़ कर रहना पड़ता, अन्यथा डाँट सुनता। उन दिनो देवास में था जब बड़े भाई मुझसे मिलने आये थे, और मैं उन्हें छोड़ने रेलवे स्टेशन जा रहा था। रास्ते में कुछ गायों का झुंड मिला, जिसमें एक गाय ने अपनी आदतानुसार मुझे कीचड़ सनी पूँछ मार दी। बस फिर क्या था, भैया ने कहना शुरू कर दिया, चलना भी नहीं आता, अरे..देख कर नहीं चल सकते क्या?, इतने बड़े हो गये हो कोई तमीज़ नहीं चलने की, पैर कहीं जाते हैं तो हाथ कहीं जाते है, कायदे से सीधे चलना भी नहीं आता, आदि आदि। मैं चुपचाप उनके साथ चला जा रहा था। क्योंकि कुछ कहता तो और डाँट सुनता। स्टेशन तक वे मुझे समझाते रहे कि...अचानक एक भैंस उनके पास से गुजरी और उसने उन्हें अपनी गोबर से सनी पूँछ मार दी। एकदम से वो चुप हो गये किंतु मुझे तो हँसी छूट गई, बावज़ूद अपने मुँह को दबाये स्टेशन की सीढियां चढ़ने लगा। उन्होने मुझे देखा और कहा- 'गलती इन ढोरों की ही है।' उन्हें विदा किया और स्टेशन के बाहर आकर सीढ़ियों पे बैठ बहुत हँसा। आज भी हम जब साथ होते हैं तो वो वाक्या याद कर बहुत हँसते हैं।

सभी ब्लोगर साथियों को दशहरा की बधाई।

नोट- कैसे लगे अमिताभ जी की ज़िंदगी के रंग। अगर आपको इनकी लेखनी के रंग देखने है तो अमिताभ -कुछ खास ब्लोग पर घूम आईए।

Thursday, September 24, 2009

एक सूचना आप सभी साथियों को।

"जिदंगी के रंग"
 जब जान लेती थकान के बाद भी आपको नींद ना आए तो ख्याल जरुर आ जाते हैं। और इन्हीं ख्यालों की गलियों में आवारागर्दी करते हुए आप कब सो जाते है पता ही नहीं चलता। इन्हीं गलियों में पिछले दिनों मुझे एक ख्याल मिला जिससे मिलकर बहुत ही अच्छा लगा। फिर सोचा आप साथियों से भी साँझा कर लूँ। हमारी जिदंगी के चारों तरफ पता नही कितने रंग बिखरे हुए है। बस उन्हीं रंगो में से तीन रंगों को मिलाकर एक रंगीन पोस्ट बनाई जाऐगी। पहला रंग होगा संघर्ष का, दूसरा रंग हँसी का, और तीसरा रंग साहित्य का।
                                          पहला रंग होगा संघर्ष का।

हम सब की जिदंगी में संघर्ष ही संघर्ष है। बस इन्ही संघर्षों में से किसी एक संघर्ष का वर्णन होगा जिसको हम आज भी याद करते है। और वही संघर्ष किसी ना किसी के लिए प्ररेणा स्त्रोत बन जाते है इंसानी संघर्ष के दिनों में। और इंसान मुशीबत के सामने उससे मुकाबला करने के लिए फौलादी दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। 




                                                     
दूसरा रंग होगा हँसी का

हम सब की जिदंगी में कभी ऐसा क्षण भी आता है जब  हमारे साथ घटी किसी घटना पर हम सब हँसे हो और आज भी याद करके हमको हँसी आती हो। वही हँसी हम सब ब्लोगर साथियों के चेहरे पर भी आ जाए। और हम सब पेट पकड़कर खूब हँसे।  



अब तीसरा रंग साहित्य का।
हम सब पढ़ते है और जो अच्छा लगता है उसे दिमाग के किसी कोने में रख देते है। और जब कभी कुछ पल खाली मिलते है तो उनसे मुलाकात करते है। कभी कभी साँझा कर लेते हैं किसी के सामने। चाहे वो कोई सूक्ति हो, चाहे वो किसी कविता की चार लाइनें हो, या फिर किसी कहानी और उपन्यास का एक डायलाग।
ओड़क ता टूट जाणे, सारे रिश्ते नाते।
फेर क्यों न बणा, अम्बर दा तारा टूंटा? 
                                 श्री चरणदास सिंधू


हर सोमवार को किसी ना किसी ब्लोगर के दिल और दिमाग से मुलाकात की जाऐगी और आप साथियों के सामने पेश की जाऐगी। पोस्ट का टाईटल होगा "जिदंगी के रंग" अब बताईए साथियों कैसा लगा ये ख्याल। आप सभी साथी अपनी अपनी राय से जरुर अवगत कराए । और ऊपर के फोटो अमिताभ जी की पोटली में से चुराए गए हैं।

Wednesday, September 9, 2009

रिश्तें नाते

रिश्तें

रिश्तों के धागे उधड़ने लगे हैं
ना जाने कैसे रिश्तें बनने लगे हैं।

खेले थे जिनकी गौद में कभी
अब वही भारी होने लगे है।

सोचा था बुढ़ापे में मिल जाऐगी दो रोटी
अब तो रोटी के साथ ताने भी मिलने लगे हैं।

कैसी अजब समय की घड़ी है
पैसे रिश्तों को सीँचने लगे है।

कल मिला "सुशील" रास्तें में, बोला
"अब तो माँ बाप के भी बँटवारे होने लगे हैं।"


कुछ दिनों से कुछ घटनाओं को देख कर मन विचलित सा था। सोच रहा था आप साथियों से साँझा कर लूँ। पर दिमाग में शब्द घूम रहे थे पर कागज पर उतरने से मना कर रहे थे। पर कल रात 1 बजे अचानक ही ये शब्द निकलते चले गए और ये तुकबंदी बन गई। पहले सोच रहा था एक लेख लिखूँगा इन घटनाओं पर, पर लिख नही पाया। उससे पहले ही ये तुकबंदी बन गई। देखिए वो लेख कब आता है?

नोट- नैना की पोस्ट को भी देखा जाए जोकि सीधे हाथ पर सबसे ऊपर हैं।

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