पागल
ना जाने क्यूँ चिड़चिड़ाने लगा है
बात बात पर वो बड़बड़ाने लगा हैं।
बदलतें इंसानी रिश्तों को देखकर
किताबों में वो साथी तलाशने लगा है।
लोग दो और दो को पाँच बताते हैं
बचपन के कायदे को वो खोजने लगा है।
बढ़ती जिम्मेदारियों की तपिश में
कोयलें सा काला वो होने लगा है।
जिदंग़ी की इन सीधी टेढी राहों पर
मुस्कराना भी वो भूलने लगा है।
अब अपनी ही धुन में घूमने लगा है
कहते हैं कि वो पागल होने लगा है।
किसी को फसल के अच्छे दाम की तलाश,किसी को काम की तलाश,किसी को प्यार की तलाश, किसी को शांति की तलाश, किसी को खिलौनों की तलाश,किसी को कहानी की तलाश,किसी को प्रेमिका की तलाश, किसी को प्रेमी की तलाश,................ तलाश ही जीवन है
Monday, June 29, 2009
Monday, June 1, 2009
गली गली वह घूमता हैं।
कबाड़ी
चिड़ियों का अलार्म सुनकर
कूड़ॆ के ढेर में से वह उठता है।
डाल कंधे पर प्लास्टिक का बोरा
बिना खाये वह गली-गली घूमता है।
देख उसे कुत्ते भोंकते है
लोग नाक मुँह सिकोड़ते है।
कड़ी धूप हो या ठुठरती ठंड़
बोरे से अपना शरीर वह ढकता फिरता है।
जिन जगहों को देख हम मुँह पर रुमाल रखते है
ऐसी जगहों को देख वह मचल उठता है।
दोपहर बाद अपने घर की राह चलता है
करके बोरे को खाली वह गत्ते, प्लास्टिक और लोहे को छाँटता है।
बेचकर उस कबाड़ को कुछ रुपये कमाता है
घर आकर फिर वह चूल्हा सुलगाता है।
ना वो मोहन, ना वो हुसैन
ना वो बेदी, ना वो जोसफ कहलाता है
वो तो बस एक कबाड़ी पुकारा जाता है।
चिड़ियों का अलार्म सुनकर
कूड़ॆ के ढेर में से वह उठता है।
डाल कंधे पर प्लास्टिक का बोरा
बिना खाये वह गली-गली घूमता है।
देख उसे कुत्ते भोंकते है
लोग नाक मुँह सिकोड़ते है।
कड़ी धूप हो या ठुठरती ठंड़
बोरे से अपना शरीर वह ढकता फिरता है।
जिन जगहों को देख हम मुँह पर रुमाल रखते है
ऐसी जगहों को देख वह मचल उठता है।
दोपहर बाद अपने घर की राह चलता है
करके बोरे को खाली वह गत्ते, प्लास्टिक और लोहे को छाँटता है।
बेचकर उस कबाड़ को कुछ रुपये कमाता है
घर आकर फिर वह चूल्हा सुलगाता है।
ना वो मोहन, ना वो हुसैन
ना वो बेदी, ना वो जोसफ कहलाता है
वो तो बस एक कबाड़ी पुकारा जाता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)