Monday, May 11, 2009

मंटो का जन्मदिन और उनसे जुड़ॆ किस्सें

मंटो का जन्मदिन
आज मंटो जी का जन्मदिन हैं सोचा आप साथियों के साथ मनाया जाए। कहानियाँ तो आपने पढ़ी ही होगी इसलिए आज कहानी ना देकर उनसे जुड़ॆ किस्से दे रहा हूँ जो कृशन चन्दर जी ने लिखे है। "मंटो: मेरा दुश्मन " किताब में। मैं मंटो के लेखन के लिए बैचेन इसी किताब को पढकर हुआ था। और फिर जब कहानियाँ पढ़ी तो मंटो के मुरीद हो गए हम। तो पेश हैं वो किस्सें। आप भी कमेंट देते वक्त अपने अनुभव लिख सकते है मंटो के बारे में। शायद पोस्ट बडी हो गई है उसके लिए माफ़ी।

पहला किस्सा
मंटो के पास टाइपराईटर था और मंटो अपने तमाम ड्रामे इसी तरह लिखता था कि काग़ज़ को टाइपराईटर पर चढ़ा कर बैठ जाता था और टाइप करना शुरु कर देता था। मंटो का ख्याल है कि टाईपराइटर से बढ़कर प्रेरणा देने वाली दूसरी कोई मशीन दुनिया में नहीं है। शब्द गढ़ॆ-ग़ढाये मोतियों की आब लिए हुए, साफ़-सुथरे मशीन से निकल जाते है। क़लम की तरह नहीं कि निब घिसी हुई है तो रोशनाई कम है या काग़ज़ इतना पतला है कि स्याही उसके आर-पार हो जाती है या खुरदरा है और स्याही फैल जाती है। एक लेखक के लिए टाइपराइटर उतना ही ज़रुरी है जितना पति के लिए पत्नी। और एक उपेन्द्र नाथ अश्क और किशन चन्दर है कि क़लम घिस-घिस किए जा रहे है। " अरे मियाँ, कहीं अज़ीम अंदब की तखलीक़ (महान साहित्य का सृजन) आठ आने के होल्डर से भी हो सकता है। तुम गधे हो, निरे गधे।" मैं तो ख़ैर चुप रहा, पर दो-तीन दिन के बाद हम लोग क्या देखते है कि अश्क साहब अपने बग़ल में उर्दू का टाईपराईटर दबाये चले आ रहे है और अपने मंटो की मेज़ के सामने अपना टाइपराइटर सजा दिया और खट-खट करने लगे। " अरे, उर्दू के टाइपराइटर से क्या होता है? अँग्रेजी टाइपराइटर भी होना चाहिए। किशन, तुमने मेरा अँग्रेज़ी का टाइपराइटर देखा है? दिल्ली भर में ऐसा टाइपराइटर कहीं न होगा। एक दिन लाकर तुम्हें दिखाऊँगा।" अशक ने इस पर न केवल अँग्रेजी का, बल्कि हिन्दी का टाइपराइटर भी ख़रीद लिया। अब जब अशक आता तो अकसर चपरासी एक छोड़ तीन टाइपराइटर उठाये उसके पीछे दाखिल होता और अश्क मंटो के सामने से गुज़र जाता, क्योंकि मंटो के पास सिर्फ दो टाइपराइटर थे। आख़िर मंटो ने ग़ुस्से में आकर अपना अँग्रेजी टाइपराईटर भी बेच दिया और फिर उर्दू टाईपराइटर को भी वह नहीं रखना चाहता था, पर उससे काम में थोड़ी आसानी हो जाती थी, इसलिए उसे पहले पहल नहीं बेचा- पर तीन टाइपराइटर की मार वह कब तक खाता। आख़िर उसने उर्दू का टाइपराइटर भी बेच दिया। कहने लगा, " लाख कहो, वह बात मशीन में नहीं आ सकती जो क़लम में है। काग़ज़, क़लम और दिमाग में जो रिश्ता है वह टाइपराइटर से क़ायम नहीं होता। एक तो कमबख़्त खटाख़ट शोर किए जाता है- मुसलसल, मुतवातिर- और क़लम किस रवानी से चलता है। मालूम होता है रोशनाई सीधी दिमाग़ से निकल कर काग़ज की सतह पर बह रही है। हाय, यह शेफ़र्स का क़लम किस क़दर ख़ूबसूरत है। इस नुकीला स्ट्रीमलाईन हुस्न देखो, जैसे बान्द्रा की क्रिशिचयन छोकरी।" और अश्क ने जल कर कहा, " तुम्हारा भी कोई दीन-ईमान है। कल तक टाइपराइटर की तारीफ़ करते थे। आज अपने पास टाइपराइटर है तो क़लम की तारीफ़ करने लगे। वाह। यह भी कोई बात है। हमारे एक हजार रुपये ख़र्च हो गये।"
मंटो ज़ोर से हँसने लगा।

दूसरा किस्सा
आज से चौदह साल पहले मैंने और मंटो ने मिलकर एक फिल्मी कहानी लिखी थी, "बनजारा" । मंटो ने आज तक किसी दूसरे साहित्यकार के साथ मिलकर कोई कहानी नहीं लिखी- न उसके पहले, न उसके बाद। लेकिन वे दिन बडी सख्त सर्दियों के दिन थे । मेरा सूट पुराना पड़ गया था और मंटो का सूट भी पुराना पड़ गया था। मंटो मेरे पास आया और बोला-" ए किशन । नया सूट चाहता है?" मैंने कहा, हाँ। "तो चल मेरे साथ।" "कहाँ?" "बस, ज़्यादा बकवास न कर, चल मेरे साथ।" हम लोग एक डिस्ट्रीब्यूटर के पास गये। मैं वहाँ अगर कुछ कहता, तो सचमुच बकवास ही होता, इसलिए मैं ख़ामोश रहा। वह डिसृट्रीब्यूटर फ़िल्म प्रोडेक्शन के मैदान में आना चाहता था। मंटो ने पन्द्रह बीस मिनट की बातचीत में उसे कहानी बेच दी और उससे पाँच सौ रुपये नकद ले लिये। बाहर आकर उसने मुझे ढाई सौ दिये , ढाई सौ रुपये खुद रख लिये। फिर हम लोगों ने अपने-अपने सूट के लिए बढिया कपड़ा खरीदा और अब्दुल गनी टेलर मास्टर की दुकान पर गये। उसे सूट जल्दी तैयार करने की ताक़ीद की। फिर सूट तैयार हो गए। पहन भी लिये गए। मगर सूट का कपड़ा दर्ज़ी को देने और सिलने के दौरान में जो समय बीता, उसमें हम काफ़ी रुपये घोल कर पी गये। चुनांचे अब्दुल ग़नी की सिलाई उधार रही और उसने हमें सूट पहनने के लिए दे दिये। मगर कई माह तक हम लोग उसका उधार न चुका सके। एक दिन मंटो और मैं कशमीरी गेट से गुजर रहे थे कि मास्टर ग़नी ने हमें पकड़ लिया। मैंने सोचा, आज साफ-साफ बेइज़्ज़ती होगी। मास्टर ग़नी ने मंटो को गरेबान से पकड़ कर कहा, "वह 'हतक' तुमने लिखी है?" मंटो ने कहा, "लिखी है तो क्या हुआ? अगर तुमसे सूट उधार लिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम मेरी कहानी के अच्छे आलोचक भी हो सकते हो। यह गरेबान छोड़ो।" अब्दुल ग़नी के चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कराहट आयी। उसने मंटो का गरेबान छोड़ दिया और उसकी तरफ अजीब-सी नजरों से देखकर कहने लगा, " जा, तेरे उधार के पैसे माफ़ किये।" वह पलटकर चला गया। चंद लम्हों के लिए मंटो बिल्कुल ख़ामोश खड़ा रहा। वह इस तारीफ़ से बिल्कुल खुश नहीं हुआ। बड़ा संजीदा और दुखी और खफ़ा-ख़फ़ा सा नजर आने लगा, "साला क्या समझता है। मुझे सताता है। मैं उसकी पाई-पाई चुका दूँगा। साला समझता है 'हतक' मेरी अच्छी कहानी है। 'हतक'? 'हतक' तो मेरी सबसे बुरी कहानी है।"

पिछले जन्मदिन पर भी एक पोस्ट की थी आप चाहे तो उसे भी पढ सकते है। नीचे दिये लिंक में।

सआदत हसन मंटो का जन्मदिन और उनकी दो छोटी कहानियाँ

Tuesday, May 5, 2009

आज का एक सच

छोटी सी तनख़्वाह में ............

वक्त की सुईयों ने
सबकी जुबान सील दी है।
बेटी अपने फटे हुए बस्तें को छिपाते हुए
रोज स्कूल जाया करती है।
बूढे पिता चंद पैसे बचाने की ख़ातिर
कड़ी धूप में इकलौता छन्ना हुआ रुमाल सिर पर रखकर
डी.टी.सी बस का इंतजार करते मिलते हैं।
माँ, हाथों की सूखी हडिड्यों पर लटकती खाल के सहारे
दिन हो या रात इस गर्मी में बिजना(पंखा) चलाती रहती है।
पत्नी पतली सी कलाईयों में
बस एक ही रंग की दो चूड़ियाँ डाले देखती है।
इनके चेहरों पर छाई उदासी
मुझे अंदर तक तकलीफ़ देती रहती है।
और मेरी आँखे, इनकी आँखो से
मिलने से कतराती फिरती है।
इस छोटी सी तनख़्वाह में
बस इनके खामोश चंद सवाल ही खरीद पाता हूँ
और जवाब के लिए दिन-भर मारा मारा फिरता हूँ।

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