Monday, April 27, 2009

गुमशुदा दोस्त की तलाश

दोस्त की यादों की बारात आई हैं।

भीड़ से भरे बस स्टेड़ पर, भीड़ से दूर बस का इंतजार करता कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
रुकी बस में ना चढ़कर, चलती हुई बस में ही चढ़ता हुआ कोई लड़का
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
बस की खाली सीटें होने के बावजूद पीछे खिड़की के पास खड़ा कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
सड़क की चढ़ाई पर रिक्शे से उतर कर, पीछे से धक्का लगाता कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।

ज़िंदगी की भूलभुलैया सी गलियों में अगर कहीं टकरा जाए तो उसे कहना
"बुढ़िया माई की गली के नुक्कड़ पर एक छोकरा उसका इंतजार करता है।"


ये दोस्त दो साल तक साथ रहा मेरे रुपनगर के स्कूल में। नया स्कूल था, नए टीचर थे, नए साथी थे। पर ये नया नही लगता था। ऐसा लगता था जैसे इसे पहले कहीं देखा है। ना जाने कभी किसी को देखकर लगता है कि इससे तो पिछले जन्म का कोई रिश्ता है। पहली मुलाकात में ही दोस्ती हो गई। जैसे पहली नजर में प्यार होता है। पता लगा ये भी 234 नम्बर बस से आता है। बस फिर क्या था टाईम फ़िक्स कर लिया एक बस स्टेड़ पर मिलने का। जैसे कोई प्यार करने वाले लड़का लड़की मिलने का टाईम फ़िक्स करते है। साथ-साथ जाते थे साथ-साथ आते थे। तब रेड लाईन बसें हुआ करती थी। और उनमें लड़ाकू छात्रों का ( आप चाहे तो पढ़ाकू भी कह सकते है) स्टाफ़ चला करता था। और ये महानुभाव टिकट लिया करते थे। हम इन्हें डरपोक कहा करते थे। पर इसे डरपोक बनने रहना ही पसंद था। पर किसी दिन कडंक्टर की बदतमीजी देख लेता था उस दिन पता नही क्यों स्टाफ़ बोला करता था। अगर कडंक्टर से बहस नही हुई तो जानबूझकर गेट पर जाकर खड़ा हो जाता था। तब कंड्क्टर उससे जरुर लड़ता था क्योंकि उसकी सवारियों को दिक्कत होती थी। तब कडंक्टर से खूब लड़ता था। समझ नही आता था कि वो गाँधी का प्रशंसक था या भगत सिंह का।

एक साउथ इंडियन टीचर थे गणित के। बस पढ़ाने से मतलब, बैशक चार छात्र पढे या तीस। हमारी क्लास में दो गेट हुआ करते थे। एक आगे और एक पीछे। सर ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल कर रहे होते थे, और अधिकतर बच्चें पीछे के गेट से बाहर निकल रहे होते थे। बस चार पाँच बच्चे रह जाते थे पढाकू टाइप के, उनमें से एक ये लड़ाकू भी होता था टेन ठीठा बराबर होता है साईन ठीठा / कोस ठीठा, पढ़ते हुए। और हम कमला नगर की मार्किट में घूम रहे होते थे। पर कभी खुद मुझे उठाकर कहता यार मन नही लग रहा चल कमला नगर चलते है छोले बठूरे खाने। फिर साधु बेला में बैठकर खूब बातें करेंगे। अपना खाना बाहर आकर किसी भिखारी को दे देता था। मैं कई बार मना करता था कि सा.. आज जाट ने( हमारे क्लास टीचर) सख्ती कर रखी है। पता नही उसे सख्ती के दिन ही खुजली क्यों होती थी, स्कूल से भागने की? पर वो जिद्दी था जिद करके ले जाया करता था। मैं कहता यार तू जिद बहुत करता है तो कहता था " जिद करता हूँ तो लगता है कि मैं जीव हूँ नही तो दोस्त निर्जीव सा महसूस करता हूँ।"

सुबह चाहे कितनी ही ठंड हो। माल रोड़ से रुपनगर तक पैदल ही खींच कर ले जाया करता था। दोपहर में जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो हम कोशिश करते थे कि स्कूल की छुट्टी से एक पिरिअड़ पहले निकले या फिर आधा घंटा बाद, क्योंकि स्टेड पर बहुत भीड़ हो जाती थी। पर कभी स्कूल की सख़्ती की वजह से छुट्टी के समय पर ही निकलना पड़ता तो मुझे रिक्शे से जाना पड़ता था, वो भी उसकी पसंद का रिक्शे वाले से। वो रिक्शे वाले से ये नही पूछता था कि माल रोड के कितने पैसे लेगा। बल्कि ये पूछता था कि आज कितने कमा लिये अगर कोई कहता कि कमा लिये होगे 30 या 40 चालीस रुपये तो वो उसमें नही जाऐगा। जिसने ज्यादा नही कमाए उसके चेहरे को गौर से देखेगा और बोलेगा "चल माल रोड छोड़ दे।" फिर माल रोड़ पहुँच कर जानबूझकर खुले पैसे नही देगा और चार या पाँच रुपये फ्री में देकर चलता बनेगा। मैं कहता था "सा.. तू मूर्ख है" वो कहता था "सा.. जब दुकान वाला दस की चीज बीस में देता है तो झट से दे आते हो और जब मेहनत करने वाले को ज्यादा मिल जाए तो शोर मचाते हो। फिर थोड़ा चुप रहकर बोलता था "लोग अनजाने में मूर्ख बनते है मैं जानबूझकर मूर्ख बनता हूँ।" "

शैतानी करने में, मैं सोचता था कि मैं ही बादशाह हूँ। पर एक दिन तो वो मेरा ही गुरु निकला। हुआ यूँ था कि एक हमारे उपप्रधानाचार्य थे अग्रवाल जी, जिनको बच्चें अक्सर बाऊ कहते थे। क्योंकि सर इस नाम से चिढ़ते थे। अक्सर बच्चें क्लास में कही भी बाऊ लिख दिया करते थे। वो दाँत पीसकर रह जाते थे। एक दिन क्लास खत्म करते ही सर मेरे से बोले "तुम मेरे कमरे में आओ।" मेरी साँसे रुक गई,दिल धड़कने लगा और सोचने लगा कि बेटा आज गया तू। कमरे में पहुँचा तो वो बोले "एक काम दे रहा हूँ तुम्हें, जरा ये पता करो कि क्लास में कौन लिखता है बाऊ।" तब जाकर साँस में साँस आई। मैंने वापिस आकर बताया कि यारों अब लिखना छोड़ दो बाऊ, सी.बी.आई लगा दी बाऊ ने तुम्हारे पीछे। वो बोला मैं कहता था ना कि फँसोगे एक दिन। सा.. मानते कहाँ हो तुम। फिर हमारे ग्रुप ने फैसला कर लिया कि अब नही लिखेंगे। पर अगले ही दिन क्लास में सर ने खलबली मचा दी यह कहकर कि जिस भी लड़के ने उनके गेट पर "बाऊ" लिखा है। पता चलते ही मैं उसका स्कूल से नाम काट दूँगा। हम अचम्भे में कि कौन हमारा भी गुरु निकल आया। जिसने बाऊ के कमरे के गेट पर ही लिखा दिया। सब टीचरों में चर्चा। छुट्टी में स्टेड जाते हुए धीरे से बोला "सुबह आते ही सबसे पहले यही काम किया था आज यार।" उसके चेहरे पर डर था पर फिर बोला "सा.. मजा बड़े बम फोड़ने में आता है नाकि छोटे बम फोड़ने में।" और अगले हफ्ते एक डायरी और एक पेन ले लाया और कहने लगा "यार बाऊ को गिफ़्ट करने जा रहा हूँ।"

दिल का साफ था। उदार विचारों को अपने दिमाग की टोकरी में रखता था। कुछ चीजें पसंद नही थी उसे। जैसे झूठ, पीठ पीछे बुराई........। जब कभी इन्हीं कारणों से किसी से उसकी लड़ाई हो जाती तो वह भी लड़ पड़ता था। लड़ता ऐसे था जैसे बस आज के बाद उसका और उस लड़के का रिश्ता खत्म हो जाऐगा। पर अगले ही दिन वह उस लड़के को Cash Account , Trial Balance, Balance Sheet आदि समझा रहा होता था। या फिर मजे से गप्पे लडा रहा होता था। मैं कहता "कल तो वो तेरे से लड़ रहा था और आज तू उसे पढ़ा रहा है।" वो कहता था " कल उसने अपनी समझ से अपना काम किया, आज मैं अपनी समझ से अपना काम रहा हूँ।" और जाते जाते एक बात जो आज तक मेरी समझ नही आई अगर आपको समझ आए तो लिख देना और नहीं आई तो ये भी पूछना उससे अगर कभी टकरा जाए किसी रास्ते, कि उसकी अधिकतर कापियों के दूसरे पेज पर ये लाइन क्यों लिखी होती थी?

"जा इंसान तेरी उम्मीद तेरा इंतजार करती हैं।"

Tuesday, April 21, 2009

चुनावों के बीच एक बात कहनी है।

नेताजी

चुनावों का शंखनाद हो चुका
नेताजी की नींद अब टूट चुकी।
तैयार हैं सब अब
अपने अपने हथियारों से
कोई वादों से बहका रहा,
कोई भावनाओं को भड़का रहा।

जिसे देखो वही बड़ी-बड़ी बातें करता हैं
पर अपने ऐशो-आराम का पूरा ख्याल भी रखता हैं।
धूल से पैर ना सन जाए
इसलिए मँहगी गाड़ियों और हैलिकाप्टरों से दौरा करता हैं।

बातें गरीबों की खूब करता हैं
फिर ना जाने क्यों ?
करोड़ो रुपये अपने पास भी रखता हैं।
सत्ता के लालच में
दुश्मन को दोस्त
दोस्त को दुश्मन बनाया करता हैं।

मिल जाए जब सत्ता
होकर आम जनता से दूर
आलीशान कोठियों और दफ़्तरों में
सत्ता का रस पीया करता हैं।

आओ फिर भी वोट करें
अपने नेता के काम को
लौकतंत्र की तराजू में तौल चलें।
जिस जिस नेता ने दिखाई हो होशियारी
उनकी तो आँखे खोल ही चलें।

Saturday, April 11, 2009

कुछ बातें और शरारतें बेटी की।



बेटी
का बचपन

यूँ तो अभी बच्ची है
पर बातें दादी माँ सी करती है।
जब कभी कुछ नया देखती है
सवालों की झड़ी लगा देती है।
सूरज बाबा संग मुस्कराती जागती है
उठते ही बस दूध, पापे माँगती है।
जिद करे तो जिददी कहलाए
ना करे तो घर खाने को आए।
गानों की शौकीन
कभी "होले-होले" पर नाचे
कभी "तेरी शादी करुँगा" को गाए।
बच्चों संग खेलने को मचलती है
ना मिले जब कोई
"मेरे साथ खेलो" हमसे कहती है।
टाफ़ी हो, चाकलेट हो या हो फिर पेस्ट्री
याद आने पर दिन-भर माँगती रहती है।
किताबें डाल अपनी मम्मी के बैग में
स्कूल जाने की एक्टिंग करती है।
खुद मेरे साथ जाकर लाई अपनी किताबें नही पढ़ती है
जब तब देखो मेरी मैंगजीनों को देखती, फाड़ती रहती है।
देर रात तक ऊधम मचाए
जब नींद आए तो झट से सो जाए
सोती हुई प्यारी नजर आए
बस यूँ ही देखते रहने को जी चाहे
ऐ ख़ुदा रहम करना
कहीं मेरी ही नजर ना लग जाए।


आजकल बेटी अपनी नानी के यहाँ गई हुई है। घर खाने को दोड़ता है। चुपचाप बैठकर उसकी बातें और शरारतें याद करता हूँ। वही से ये तुकबंदी निकल गई। कोई तुकबंदी लिखूँ और आप साथियों से साझा ना करुँ ऐसा भला हो सकता है। और हाँ आजकल समय नही मिल रहा ब्लोग की दुनिया को देखने का , जब समय होता है तो नेट नही होता है। दस बारह दिन हो गए घर का नेट नही आ रहा। और आफिस में एक आदमी को तीन तीन आदमी का काम करना पड रहा है। खैर पोस्ट डाल रहा हूँ कैफे में बैठकर।

Monday, April 6, 2009

समाजवाद और गौरख पाण्डेय

समाजवाद 

समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई 
समाजवाद उनके धीरे धीरे आई 
हाथी से आई, घोड़ा से आई 
अंग्रेज़ी बाजा बजाई, समाजवाद बबुआ..... 

आंधी से आई, गांधी से आई
बिरला के घर में, समाजवाद बबुआ..... 

नोटवा से आई, वोटवा से आई 
कुर्सी के बदली हो जाई, समाजवाद बबुआ..... 

कांग्रेस से आई, जनता से आई 
झंड़ा के बदली हो आई, समाजवाद बबुआ..... 

रुबल से आई, डालर से आई 
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद बबुआ..... 

लाठी से आई, गोली से आई 
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद बबुआ..... 

मंहगी ले आई, गरीबी ले आई 
केतनो मजूर कमाई, समाजवाद बबुआ..... 

छुटवा के छुटहन , बड़्वा के बड़हन 
हिस्सा बराबर लगाई, समाजवाद बबुआ..... 

परसो ले आई, बरसो ले आई 
हरदब अकासे तकाई, समाजवाद बबुआ..... 

धीरे धीरे आई, चुप्पे चुप्पे आई 
अंखियन पे पर्दा लगाई 
समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई ................ 


गोरख पाण्डेय  

कल कमाल खान जी ने एक स्टोरी में गोरख जी की लिखी दो लाईन कहीं तो एकदम मुझे उनकी लिखी पूरी रचना याद हो आई। फिर मन किया क्यों ना आप साथियों के साथ भी बांट दूँ। आप बताए कैसी लगी। वैसे अब तक जितना भी गोरख पाण्डेय जी का लिखा पढा है सब दिल को छुआ है। इसलिए उनको दिल से शुक्रिया। 

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