Tuesday, March 3, 2009

चल मेरी सखी

दो चार दिन पहले यूँ ही चार लाईने दिमाग में घूम रही थी। हम ठहरें आलसी आदमी, सोचा चलो घूमने दो काहे उन्हें परेशान करें। पर जब संडे के दिन बेटी को चिड़ियाघर घुमाकर आए। तो हम थक गए थे सोचा वो चार लाईने भी घूमते घूमते थक गई होंगी इसलिए अब उन्हें आराम दे देना चाहिए। कागज़ कलम लेकर बैठे तो उन चार लाईनों से इतनी लाईने बनती ही चली गई। फिर नजर मारी तो देखा ये लाईने तो ठीक ठाक बन गई है,फिर दिल नही माना कि इनसे छेड़छाड की जाए। पर दिमाग हिचक रहा था इन्हें पोस्ट करने से। पर दिल है कि माना नहीं। फिर दोनों ने मीटिंग की और प्रस्ताव पारित कर दिया कि यह तुकबंदी पोस्ट कर दी जाए, बिना छेड़छाड़ के। छेड़छाड़ की तो "सखी" नाराज हो जाऐगी। तो साथियों पेश आज की पोस्ट।


चल मेरी सखी

एक आशियाना बनाते हैं।
आ फिर मिलकर तिनके बिनते हैं
अपने हाथों से उसकी नींव रखते हैं।
जहाँ
चमके सूरज की पहली किरणें
खिले फूलों की ढेरों कलियाँ
गूँजे चिडिय़ों की चहचाहटें।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।

वहाँ
ना तेरी
ना मेरी
हो हमारी आवाजें।
मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।

आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।

35 comments:

Puja Upadhyay said...

खूबसूरत आशियाना संजो रहे हैं आप...खुला खुला पनचचियों की तरह. अच्छा लगा पढना

विवेक said...

बहुत अच्छा किया आपने...'घूमते-घूमते थक गई' लाइनों में एक खूबसूरत ताजगी है.

Alpana Verma said...

मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।

सुशील जी आप की चार पंक्तियाँ घूमते घूमते थकी नहीं..
देखीये ..कितनी सुन्दर कविता बन गयी.
'सखी 'आप को इतनी प्यारी पंक्तियाँ दे गयी उस का आभार...

रंजू भाटिया said...

वहाँ
ना तेरी
ना मेरी
हो हमारी आवाजें।
मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।

घुमती फिरती सोच को खूबसूरत लफ्ज़ मिले हैं ...जब कविता लिखना शुरू किया था कुछ इस तरह का मैंने भी लिखा था :) कभी मिलेगी वह डायरी के पुराने पन्नो में दबी हुई ..

seema gupta said...

आ फिर मिलकर तिनके बिनते हैं
अपने हाथों से उसकी नींव रखते हैं।
जहाँ
चमके सूरज की पहली किरणें
खिले फूलों की ढेरों कलियाँ
गूँजे चिडिय़ों की चहचाहटें।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।

" एक आशियाना बनाने की ख्वाइश ...... ख्यालो के साथ....तिनके जोड़ के ....जहाँ कोई बंधन नहीं...कोई शर्त नहीं....फिर भी साथ साथ ....रिश्तो की कोमलता और अपनेपन से सहेजी सुंदर पंक्तियाँ..."

Regards

Anonymous said...

आपकी चार लाइनें पसंद आईं।

ताऊ रामपुरिया said...

बिल्कुल ठंडी हवा का झौंका है आपकी यह रचना. बहुत बधाई जी.

रामराम.

Unknown said...

सुशील जी बहुत ही सुन्दर कविता प्रस्तुत की है आपने ।

Anonymous said...

bahut khubsurat bhav

मीत said...

आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।
अब आप क्या कहेंगे इस के बारे में...
मीत

अविनाश वाचस्पति said...

यही तो प्‍यार है।

vandana gupta said...

waah waah
kya baat hai sushil ji
sach aashiyan ho to aisa
koi bandhan na ho magar phir bhi bandhe hon ek duje se,
koi shart na ho magar phir bhi pyar ka sagar lahra raha ho.
aapke pass aapki sakhi hai jo aapko itne khoobsoorat alfaz aur idea deti hai aur kya chahiye.
sach bahut sundar .

bhuvnesh sharma said...

काश सबका ऐसा आशियाना हो....

दिगम्बर नासवा said...

सुशील जी
अगर इसको तुक्ब्बंदी कहते हैं तो सरकार जब आप कविता के मूड में लिखते होंगे तो क्या गजब ढाते होंगे.
बहुत ही अच्छी रचना लिखी है जनाब ख़्वाबों की सखी के साथ मुक्त विचरण करते सुन्दर कल्पना

डॉ .अनुराग said...

कई बार भावः इतने महतवपूर्ण होते है की कविता के नियमो में बंध नहीं पाते .वैसे भी हम कहाँ किसी नियम को जानते है...सच्ची कविता

अनिल कान्त said...

सुशील जी बहुत ही लाजवाब लिखा है आपने ...सचमुच दिल डूब गया इसमें

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

रंजना said...

सचमुच , कितना सुन्दर होगा ऐसा आशियाना......
भावभरी सुन्दर कविता के लिए आभार............

नीरज गोस्वामी said...

अच्छा किया जो आपने दिल का साथ दिया...बहुत भावपूर्ण रचना बन पड़ी है आपकी...अतिसुन्दर...बधाई.

नीरज

शोभा said...

मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।
बहुत अच्छा लिखा है।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बढिया है.

राजीव तनेजा said...

सीधे-सीधे कहो ना मित्र कि शादी के चक्कर में फँसने के बजाए "लिविन रिलेशनशिप" चाहते हो...

हा...हा....हा...


बढिया कविता

kumar Dheeraj said...

चल मेरी सखी
एक आशियाना बनाते हैं।
आ फिर मिलकर तिनके बिनते हैं
अपने हाथों से उसकी नींव रखते हैं।
जहाँ
चमके सूरज की पहली किरणें
खिले फूलों की ढेरों कलियाँ
गूँजे चिडिय़ों की चहचाहटें।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।
चिड़ियाघर से घूमकर आपने जो रचना लिखी है वह बेमिसाल है । अपने कलम को बिराम देने के बजाय आपने उसे और भी तेज कर दिया । आशियाना की बात कर उसे और भी रोचक बना दिया । धन्यवाद

राज भाटिय़ा said...

मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।
क्या बात है, बहुत ही सुंदर ओर बेहतरीन कविता.
धन्यवाद

Mohinder56 said...

ईंशा अल्लाह.... खुदा आपके इस आशयाने को बुरी नजर से बचाये.

सुन्दर भावप्रद रचना के लिये बधाई

अमिताभ श्रीवास्तव said...

सुशीलजी ,
यदि आपकी थकान और उन लाइनों की थकान सचमुच इतनी अच्छी है, तो यह थकान हमेशा बनी रहे.इससे दो फायदे है, एक तो हम पढने वालो को बेहतर चीज मिलेगी, दुसरे आपकी 'सखी' भी नाराज़ नहीं होगी. जिस आशियाने की खोज है, सच में सुन्दर आशियाना है. बहुत खूब शब्द है जो रस के साथ बह रहे है ..
साधुवाद.
भाई मेरे ईमेल का जवाब नहीं दिया??

Science Bloggers Association said...

चल मेरी सखी
एक आशियाना बनाते हैं।
आ फिर मिलकर तिनके बिनते हैं
अपने हाथों से उसकी नींव रखते हैं।

बहुत सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति।

vijay kumar sappatti said...

susheel ji

again sorry for late arrival , i was on tour.

poem ki ab itni tareef ke baad main kuch kahun to kya kahun .. bus , shabd-chitron ne ek sama baandha hua hai ..

main bhi kuch likha hai , jarur padhiyenga pls : www.poemsofvijay.blogspot.com

Anonymous said...

Susheel, bahut achhi kavita likhi hai.

photo aap ko bhej di hai

हरकीरत ' हीर' said...

वहाँ
ना तेरी
ना मेरी
हो हमारी आवाजें।
मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।....

Waah...! Sushil ji mujhe kehte hain aapne bhi to nisabd kar diya....!

मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया....yahi to gila hai..!!

श्रद्धा जैन said...

मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।

Wah shushil ji

aapko padh kar man mugdh ho gaya

bahut bhavuk bhaut komal bhaut utkrith kavita

Alpana Verma said...

Suhsil ji,
Gujhiya hamare liye bhi bhijwayeeyega.
aap ke pure parivar ko verma parivaar ki aur se dher dher sari rang birangi meethi badhayeeyan...

ham to TV mein holi khelte dekh kar manaa lengey..:)

sandhyagupta said...

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

आपकी चंद लाईने हमारा चंद दिल चुरा ले गयी भई.....!!

ताऊ रामपुरिया said...

होली की घणी रामराम.

योगेन्द्र मौदगिल said...

होली मुबारक.....

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