आज 31 अगस्त हैं अमृता जी का जन्म का दिन।
मेरे लिए यह दिन अब बहुत ही ज़ज्बाती होता है। आज है उनकी बातों का दिन, उनकी यादों का दिन। इनका लेखन ही था जिसने मुझे किताबों का रसिक बनाया। पहले एक किताब पढ़ी फिर दूसरी, फिर तीसरी, और फिर किसी ओर लेखक की एक किताब पढ़ी और ये सिलसिला यू ही चल पड़ा। या यू ही भी कह सकते है ये ही थी जिन्होने मुझे बिगाड़ा और किताबों से दोस्ती करा दी। और मन चाहने लगा कि एक बार इनसे मिला जाए। जो इंसान इतना प्यारा लेखन करता है वो कैसा है। बस कही से पता लिया उनके घर का। और निकल पड़े 31 अगस्त को उनकी जन्मदिन की बधाई देने के लिए। एक हाथ में एक ग्रीटींग और एक किताब " चुने हुए उपन्यास- अमृता प्रीतम" लिए निकल पड़े उनके होजखास घर के लिए। होजकास पहुँच कर एक गुलदस्ता लिया फूलों का।( कभी किसी लड़की को फूल तो क्या एक छोटा सा ग्रीटींग भी नही दिया। और जो एक आध लड़की अच्छी लगी कभी उनका नाम भी नही पूछ सका और आज फूल भी, ग्रीटिंग भी, वाह क्या बात है ) पता ढूढ कर घर के बाहर लगी घंटी बजाई। एक आदमी आया कुर्ता पजामा पहने। लगता था जाना पहचाना दिमाग पर जोर दिया तो पता लगा अरे ये तो इमरोज जी है। वो मुझे ऊपर ले गए। और एक जगह बैठा कर बोले कि आज उनकी तबीयत जरा ठीक नही है फिर भी बता कर आता हूँ कि कोई चाहने वाला आपको जन्मदिन की बधाई देने आया है। वो आई इमरोज जी को पकड़ते हुए मुझे लगा जैसे मैने गलती कर दी हो आकर। पर वो आई तो मैने उनके चरणस्पर्श किए। एक आर्शीवाद का हाथ सिर पर प्यार से फिर गया। फूलों का गुलदस्ता दिया गया जन्मदिन की मुबारकबाद के साथ साथ। नाम पूछा, काम पूछा। लगभग 10या 15 मिनट बात हुई। बात करते हुए लगा जैसे मै इन्हें बरसो से जानता हूँ। मैंने ही कहा कि आपकी तबीयत ठीक नही आप आराम करे। ठीक है मै जाती हूँ। एकदम ही मै फिर से बोल उठा कि मुझे आपके आटोग्राफ चाहिए और मैने वो किताब आगे बढ़ा दी। वे आटोग्राफ दे कर चली गई इमरोज जी के साथ। मैं खुश था कि मैंने इनसे मुलाकात कर ली। इमरोज जी आए और मैने दूसरे कमरे में जाने की इजाजत माँगी जहाँ खूब सारी पेटिंग्स रखी हुई थी जिन्हें देखने की इच्छा दूर से ही देखने के बाद हो गई थी। इमरोज जी ने कहा क्यों नही आप देखिए। जैसे ही मैं उस कमरे में घुसा तो देखा चारों तरफ पेटिंग्स ही पेटिंग्स थी दिवारों। और फर्श पर दीये रखे थे बुझे हुए ऐसा लगा कि जैसे रात को जले हो। उस कमरे में आकर लगा कि पता नही मै कौन सी दुनिया में आ गया हूँ। वो दिन है और आज का दिन है इमरोज जी की पेटिंग्स मैं दूर से पहचान जाता हूँ और अमृता जी की किताबों को भी। बहुत देर तक उस दुनिया में रहकर मैं विदा लेकर आ गया। फिर उसके बाद भी वहाँ जाना हुआ। एक दो बार। ये मेरी पहली मुलाकात थी उनके साथ। उनके जन्मदिन पर आप सभी से बाँट डाली। एक इमेज भी है जिस अमृता जी के आटोग्राफ है। साथ कुछ अमृता प्रीतम जी की कविताएँ भी पेश कर रहा हूँ आशा है आप लोगों को मेरी पसंद अच्छी लगेगी। जोकि " चुनी हुई कविताएँ- अमृता प्रीतम" की किताब से ली गई है। जिनके प्रकाशक है "भारतीय ज्ञानपीठ" । भारतीय ज्ञानपीठ की बहुत मेहरबानी।
आदि रचना
मैं- एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था, जो पानी का रुह बना
और तू का संकल्प था, जो आग की तरह नुमायां हुआ
और आग का जलवा पानी पर चलने लगा
पर वह पुरा-ऐतिहासिक समय की बात है .....
यह मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उस ने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिट्टी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
यह मैं की माटी की गन्ध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला-सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया ।
यह तेरे और मेरे मांस की सुगन्ध थी -
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी ।
संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है ......
अमृता प्रीतम
एक दर्द था-
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं -
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.....
इमरोज़ चित्रकार
मेरे सामने- ईज़ल पर एक कैनवस पड़ा है
कुछ इस तरह लगता है -
कि कैनवस पर लगा रंग का टुकड़ा
एक लाल कपड़ा बन कर हिलता है
और हर इंसान के अन्दर का पशु
एक सींग उठाता है ।
सींग तनता है -
और हर कूचा-गली-बाज़ार एक ' रिंग ' बनता है
मेरी पंजाबी रगों में एक स्पेनी परम्परा खौलती
गोया कि मिथ- बुल फाइटिंग- टिल डैथ -
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रुर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रुह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है ।
किसी को फसल के अच्छे दाम की तलाश,किसी को काम की तलाश,किसी को प्यार की तलाश, किसी को शांति की तलाश, किसी को खिलौनों की तलाश,किसी को कहानी की तलाश,किसी को प्रेमिका की तलाश, किसी को प्रेमी की तलाश,................ तलाश ही जीवन है
Sunday, August 31, 2008
Saturday, August 30, 2008
व्यथा एक जीवन की
पेड़
धूप में तपता
ठंड में अकड़ता
बारिश में खिलता
ये पेड़ यू ही डटा रहता।
कोई थका मादा जब इसके पास आता
इसकी छाया में थकान मिटा, एक नई ऊर्जा लेकर जाता
जब भी माँगा किसी ने एक लकड़ी का टुकड़ा
अपने घर का चूल्हा जलाने को
खुशी-खुशी वह लकड़ियाँ देता रहता।
पर कोई नहीं पूछता उससे
उसके दिल की बातें
उसके अरमान
उसके सपने
उसके दुख
धूप में तपता
ठंड में अकड़ता
बारिश में खिलता
ये पेड़ यू ही डटा रहता।
कोई थका मादा जब इसके पास आता
इसकी छाया में थकान मिटा, एक नई ऊर्जा लेकर जाता
जब भी माँगा किसी ने एक लकड़ी का टुकड़ा
अपने घर का चूल्हा जलाने को
खुशी-खुशी वह लकड़ियाँ देता रहता।
पर कोई नहीं पूछता उससे
उसके दिल की बातें
उसके अरमान
उसके सपने
उसके दुख
Monday, August 25, 2008
एक लाचारी भरा दिन
दो किलकारी
दो किलकारीयाँ घर में गूँजने से पहले
बीच रास्तें में ही कहीं दफ़न हो गई
कोई अनदेखी अनजानी डोर उन्हें खींच ले गई
बहना काका काका पुँकारती रही
माँ दर्द में कराहती हुई आवाज़ लगाती रही
दादी कहती मेरे दो फूल आओ और खिल जाओ
दादा रुँधे गले से बोल रहे
ओ मेरे राम लक्ष्मण मेरे बुढ़ापे के साथी बन जाओ
मैं ना आवाज़ मार सका, ना हाथ ही बढ़ा सका
मैं दो दो हाथ लिए भी पत्थर की मूर्ति बना खड़ा
बस देखता रहा, बस देखता रहा, बस देखता रहा ....
दो किलकारीयाँ घर में गूँजने से पहले
बीच रास्तें में ही कहीं दफ़न हो गई
कोई अनदेखी अनजानी डोर उन्हें खींच ले गई
बहना काका काका पुँकारती रही
माँ दर्द में कराहती हुई आवाज़ लगाती रही
दादी कहती मेरे दो फूल आओ और खिल जाओ
दादा रुँधे गले से बोल रहे
ओ मेरे राम लक्ष्मण मेरे बुढ़ापे के साथी बन जाओ
मैं ना आवाज़ मार सका, ना हाथ ही बढ़ा सका
मैं दो दो हाथ लिए भी पत्थर की मूर्ति बना खड़ा
बस देखता रहा, बस देखता रहा, बस देखता रहा ....
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सुशील छौक्कर
Friday, August 22, 2008
मेरा बचपन
दिल्ली में मेरा बचपन
मेरे बचपन की दिल्ली थी बड़ी खुली खुली
ट्रेन की आवाजें थी मेरी माँ की घड़ी
लिखता था तख़्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही की दवात में डुबो के
पाठशाला में ज़मीन पर बैठ पढ़ा करते थे
टाट भी खुद ही घर से ले जाया करते थे
वो खट्टी मीठी संतरे की गोली मुँह में डाल
क से कलम, द से दवात बोला करते थे
पाठशाला की जब बजती टन टन पूरी छुट्टी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख़्ती लिए
दौड़ जाते थे शोर मचाते हुए घर के लिए
फैंक बस्ता एक कोने में, खा जल्दी जल्दी एक दो रोटी
भाग जाते थे भरी दोपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे खेलने
वापिस आते वक्त भरी होती कंचो से कमीज़ की झोली
माँ डाटँती सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती
हाथ मुँह धो, लगा पीठ दीवार पर
स्कूल का सारा काम थोड़ी देर में ही कर जाया करते थे
शाम ढलती रात होती माँ के चूल्हे में आग होती
खा माँ के हाथों की रोटी, लेट खाट पर सपनों में खो जाते थे
मेरे बचपन की दिल्ली थी बड़ी खुली खुली
ट्रेन की आवाजें थी मेरी माँ की घड़ी
लिखता था तख़्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही की दवात में डुबो के
पाठशाला में ज़मीन पर बैठ पढ़ा करते थे
टाट भी खुद ही घर से ले जाया करते थे
वो खट्टी मीठी संतरे की गोली मुँह में डाल
क से कलम, द से दवात बोला करते थे
पाठशाला की जब बजती टन टन पूरी छुट्टी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख़्ती लिए
दौड़ जाते थे शोर मचाते हुए घर के लिए
फैंक बस्ता एक कोने में, खा जल्दी जल्दी एक दो रोटी
भाग जाते थे भरी दोपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे खेलने
वापिस आते वक्त भरी होती कंचो से कमीज़ की झोली
माँ डाटँती सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती
हाथ मुँह धो, लगा पीठ दीवार पर
स्कूल का सारा काम थोड़ी देर में ही कर जाया करते थे
शाम ढलती रात होती माँ के चूल्हे में आग होती
खा माँ के हाथों की रोटी, लेट खाट पर सपनों में खो जाते थे
Tuesday, August 19, 2008
बचपन के दिन (पान वाले की दुकान और सुरीले गाने)
दो एक दिन पहले महेन जी ने अपने ब्लोग पर एक गाना सुनवाया था। गीत के बोल थे " चल उड़ा जा रे पंछी" । गीत के बोल मुझे मेरे बचपन में ले गए जब मैं पढ़ा करता था। तब गानों की इतनी समझ नही थी वैसे आज भी समझ नही आई हैं। जो गाने तब अच्छे नही लगते थे अब वो गाने अच्छे लगते हैं। बस इतना फर्क आ गया हैं। खैर बात बचपन की हो रही थी। जब हमारी आधी छुट्टी होती थी तो मै और मेरा एक दोस्त बाहर पेट पूजा करने आते थे। चार डबलरोटी लेकर उसके बीच में छोले रख कर और ऊपर से खट्टी चटनी डाल कर हम दोनो खाते थे। और स्कूल के पास ही एक पनवारी की दुकान थी जहाँ हम खड़े हो जाते थे। क्योंकि उसके पास टेप रिकार्डर था और हर समय चलता रहता था। बस हम दोनों एक साईड में खड़ॆ होकर गाने सुनते थे। 10 या 15 मिनट तक। उसके पास गानों की कैसेटों की भरमार थी। वह हमें अपनी दुकान से भगा ना दें इसलिए उससे हम संतरे की छोटी छोटी मीठी गोलियाँ ले लिया करते थे। वहाँ एक गाना अक्सर बजता था जो मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। पर कल ही पता चला कि वह गाना नही कव्वाली हैं। जब मैं उसको यूटयूब पर सर्च कर रहा था। उसके बोल हैं " चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता हैं ढल जाऐगा" । कल से कई बार सुन चुका हूँ फिर एकदम ख्याल आया आप सभी साथी दोस्तों को भी ये सुनवाया जाए। अच्छा लगे तो दो शब्द, खराब लगे तो चार शब्द कहना।
साभार: www.youtube.com . youtube वालों की बहुत मेहरबानी जिनकी बदौलत ये कव्वाली मैं फिर से सुन पाया और सुनवाया पाया ।
साभार: www.youtube.com . youtube वालों की बहुत मेहरबानी जिनकी बदौलत ये कव्वाली मैं फिर से सुन पाया और सुनवाया पाया ।
Friday, August 15, 2008
आज़ादी के पर्व पर मेरे दिल के करीब दो देशभकित गाने
आज़ादी के इस पर्व की सबको बधाई।
आज 15 अगस्त हैं। हमारी आज़ादी का दिन। बाहर क्या बच्चें, क्या जवान, क्या वृद सभी छतों पर पतंगे उड़ा रहे हैं। आसमान पर पंतग ही पंतग हैं। और नीचे आवाज आ रही है कि आई बो के( पंतग कट गई) । बचपन के दिन याद आ रहे जब 14 अगस्त को स्कूल में देशभकित के गानों का कार्यक्रम होता था । झंडा फहराया जाता था। तब से लेकर आज तक एक गाना मेरे दिल के नजदीक हैं। पहले भी सुनकर आँखे नम हो जाती थी और आज भी । मेरे दोस्त पूछते थे तुझे क्या हुआ। पर पता नही मुझे क्या हो जाता था। खैर गाने के बोल हैं। "ऐ मेरे प्यारे वतन"। फिल्म "काबुली वाला"। साथ ही इसके अलावा एक गाना और हैं जो मेरे गाँवो की याद दिलाता हैं। आप सभी को फिर आज़ादी की ढेरो शुभकामनाएं।
साभार : www.youtube.com.मेहरबानी youtube की।
आज 15 अगस्त हैं। हमारी आज़ादी का दिन। बाहर क्या बच्चें, क्या जवान, क्या वृद सभी छतों पर पतंगे उड़ा रहे हैं। आसमान पर पंतग ही पंतग हैं। और नीचे आवाज आ रही है कि आई बो के( पंतग कट गई) । बचपन के दिन याद आ रहे जब 14 अगस्त को स्कूल में देशभकित के गानों का कार्यक्रम होता था । झंडा फहराया जाता था। तब से लेकर आज तक एक गाना मेरे दिल के नजदीक हैं। पहले भी सुनकर आँखे नम हो जाती थी और आज भी । मेरे दोस्त पूछते थे तुझे क्या हुआ। पर पता नही मुझे क्या हो जाता था। खैर गाने के बोल हैं। "ऐ मेरे प्यारे वतन"। फिल्म "काबुली वाला"। साथ ही इसके अलावा एक गाना और हैं जो मेरे गाँवो की याद दिलाता हैं। आप सभी को फिर आज़ादी की ढेरो शुभकामनाएं।
साभार : www.youtube.com.मेहरबानी youtube की।
15 अगस्त ,
आज आज़ादी का दिन हैं। आप सभी देशवासियों को ढेरों शुभकामनाऐं।
आज़ादी का दिन
आज़ादी का दिन
सूखी हड्डियों की काया
चिथड़ो में लिपटी हुई
कंधे पर टाँगे एक पोटली
पीठ पर बाँधे जिगर का टुकड़ा
नीले अम्बर के नीचे
विचारों की जुगाली के अड्डे
इंडिया हैबिटेट सेंटर के चौराहे पर
दो रोटी और थोड़े से दूध के वास्ते
बेच रही थी
एक एक रुपये में एक एक तिरंगा
यही हैं आजादी का रंग बदरंगा
और जब पड़ी तेज बारिश
तो तिरंग़ा लुगदी बन गया
न मिली रोटी न मिला दूध
भूखा पेट दूध रोटी के सपनों मे खो गया
नोट: अविनाश जी के मार्गदर्शन के बिना यह तुकबंदी पूरी नही हो पाती, इसलिए सप्रेम उनकी बहुत मेहरबानी।
Thursday, August 7, 2008
बुत
बुत
देखो उस बुत को
कैसा चमक रहा हैं
कितनी जगह घेरे हैं
कितना पैसा खर्च किऐ हैं
अपनी शान के नाम पर
बिल्कुल तुम्हारी तरह
कुछ समय बाद देखना उस बुत को
कोई थूकेगा
पक्षी बीट करेगे
बच्चे पत्थर से हिट करेंगे
अपना निशाना ठीक करेंगे
इसलिए
नेताओ
अब भी समय हैं
संभल जाओ
कुछ ऐसा कर जाओ
आने वाली पीढ़ियाँ नाज करें
शान से तुम्हारी बात करें
देखो उस बुत को
कैसा चमक रहा हैं
कितनी जगह घेरे हैं
कितना पैसा खर्च किऐ हैं
अपनी शान के नाम पर
बिल्कुल तुम्हारी तरह
कुछ समय बाद देखना उस बुत को
कोई थूकेगा
पक्षी बीट करेगे
बच्चे पत्थर से हिट करेंगे
अपना निशाना ठीक करेंगे
इसलिए
नेताओ
अब भी समय हैं
संभल जाओ
कुछ ऐसा कर जाओ
आने वाली पीढ़ियाँ नाज करें
शान से तुम्हारी बात करें
Tuesday, August 5, 2008
एक जिदंगी यह भी
रोज देखता हूँ
इस औरत को
इसके छोटे-छोटे बच्चों को
जो पलते हैं सड़क किनारे
धूप होती तो चले जाते पेड़ की छावों में
ठंड़ होती तो दोड़े जाते माँ की बाहों में
इनकी जिदंगी यही रुकी रहती
वाहनो पर बैठी जिदंगी दोड़ती रहती
आज शाम
जैसे ही पहुँचा इस औरत के ठीये के पास
राम जी बरसने लगे बड़ी जोरों से
यह औरत दोड़ी, उतार पेड़ से एक काली तिरपाल
बना छत उसे, बच्चों संग खड़ी हो गई उसके नीचे
तभी एक स्कूटर रुका, खड़ा कर उसे
एक आदमी और एक लड़की खड़े हो गए इसी पेड़ के नीचे
उन्हें भीगता देख इस औरत ने खोल दिऐ दिल के दरवाजे
बुला लिया बाप बेटी को अपनी तिरपाल की छत के नीचे
बारिश बढ़ती गई
क्या आम क्या खास
सब आते गये इसकी छत के नीचे
औरत सिमटती रही
छत फैलती गई
कुछ समय बाद बारिश थमी
लोग निकलते गऐ
छत सिमटती रही
फिर से
इसकी जिदंगी यही रुकी रही
वाहनों की जिदंगी दोड़ती रही
इस औरत को
इसके छोटे-छोटे बच्चों को
जो पलते हैं सड़क किनारे
धूप होती तो चले जाते पेड़ की छावों में
ठंड़ होती तो दोड़े जाते माँ की बाहों में
इनकी जिदंगी यही रुकी रहती
वाहनो पर बैठी जिदंगी दोड़ती रहती
आज शाम
जैसे ही पहुँचा इस औरत के ठीये के पास
राम जी बरसने लगे बड़ी जोरों से
यह औरत दोड़ी, उतार पेड़ से एक काली तिरपाल
बना छत उसे, बच्चों संग खड़ी हो गई उसके नीचे
तभी एक स्कूटर रुका, खड़ा कर उसे
एक आदमी और एक लड़की खड़े हो गए इसी पेड़ के नीचे
उन्हें भीगता देख इस औरत ने खोल दिऐ दिल के दरवाजे
बुला लिया बाप बेटी को अपनी तिरपाल की छत के नीचे
बारिश बढ़ती गई
क्या आम क्या खास
सब आते गये इसकी छत के नीचे
औरत सिमटती रही
छत फैलती गई
कुछ समय बाद बारिश थमी
लोग निकलते गऐ
छत सिमटती रही
फिर से
इसकी जिदंगी यही रुकी रही
वाहनों की जिदंगी दोड़ती रही
Friday, August 1, 2008
ऐ मेरे दोस्त तेरे लिए
जिंदगी चलने का नाम हैं
यूँ ही चला चल
कोई साथ हो, ना हो, बैशक
एक आश के सहारे ही चला चल
हाथ मत फैला
कुछ जलील करेंग़े, कुछ दया करेंगे
दोनो ही सूरत में तेरे हाथों में हार होगी
हाथों के जौहर दिखा
क्या हुआ जो हाथों में छाले पड़ जाऐंगे
इन छालों से तो हाथ और मजबूत बन जाऐंग़े
तब ये ज्यादा भार उठा पाऐगे
तू मत हो उदास
किसी राह चलते चलते
वह सुबह जरुर आऐगी
जब तेरी मंजिल तुझे मिल जाऐगी
जरा हौसला तो रख
जिंदगी चलने का नाम हैं
यूँ ही चला चल
यूँ ही चला चल
कोई साथ हो, ना हो, बैशक
एक आश के सहारे ही चला चल
हाथ मत फैला
कुछ जलील करेंग़े, कुछ दया करेंगे
दोनो ही सूरत में तेरे हाथों में हार होगी
हाथों के जौहर दिखा
क्या हुआ जो हाथों में छाले पड़ जाऐंगे
इन छालों से तो हाथ और मजबूत बन जाऐंग़े
तब ये ज्यादा भार उठा पाऐगे
तू मत हो उदास
किसी राह चलते चलते
वह सुबह जरुर आऐगी
जब तेरी मंजिल तुझे मिल जाऐगी
जरा हौसला तो रख
जिंदगी चलने का नाम हैं
यूँ ही चला चल
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