Wednesday, November 26, 2008

पंजाब की प्रेम कविताएं

पिछले महीने एक किताब पढ़ी थी "ओ पखुंरी" जिसमें दी हुई कविताएं बहुत ही खूबसूरत थी पर तीन कविताएं दिल को छू गई और मैंने अपनी डायरी में उतार ली आज सोचा कि बारी बारी से एक एक कविता आप सभी के लिए पेश कर दूँ।

मेरी कविता

मेरी माँ को मेरी कविता समझ न आई
बेशक मेरी मातृभाषा में लिखी हुई थी
वह तो केवल इतना समझी
पुत्र की रुह को दुख हैं कोई

मगर उसका दुख
मेरे होते हुए
आया कहाँ से

ध्यान लगाकर देखा
मेरी अनपढ़ माँ ने मेरी कविता
"देखो लोगों,
अपने कोख से जन्में
माँ को छोड़
अपने दुख काग़ज़ों को कहते हैं

मेरी माँ ने काग़ज़ों को उठाकर
सीने से लगाया
क्या पता इस तरह ही
कुछ मेरे नज़दीक हो जाए
मेरा बेटा
सुरजीत पातर

साभार- किताब का नाम - "ओ पंखुरी" ,चयन व अनुवाद राम सिहं चाहल, प्रकाशन - संवाद प्रकाशन मेरठ (जिन जिन के सहयोग से ये कविताएं हमारे तक पहुँची उन सभी को दिल से शुक्रिया)




Thursday, November 6, 2008

कोई हिजड़ा कह बुलाता और कोई किन्नर कह पुकारता , लेकिन कोई भी अपना कह नही दुलारता हमें।

एक ही कोख से जन्में हम
एक ही खून से बनें हम
भूख लगती तो खाना खातें हम
दुख होने पर रोते हम
खुश होने पर हँसते हम
एक ही मिट्टी में मिलते आखिर में हम
परंतु
अपने परिवार से ठुकराए जाते सिर्फ हम
बाहर निकलकर मजाक बनते सिर्फ हम
सब रिश्तों की आँखो में चुभते सिर्फ हम
ताली बजाकर पेट की आग बुझाते सिर्फ हम
प्यार, दुलार को तरसते सिर्फ हम
सदियों से लेकर आजतक उपेक्षित रहें सिर्फ हम

नोट: ऊपर दिये फोटो http://www.pijushphotography.blogspot.com/ और गूगल से लिए गए। इसलिए इस पोस्ट के लिए उनका भी शुक्रिया।

Monday, November 3, 2008

यह दीपावली भी आई और चली गई।

ऐसी रही मेरी दीपावली

हर बार की तरह यह दिवाली आई और चली गई। बेटी अब समझने और जानने लगी हैं। इसलिए उमंग थी, खुशी थी, और मेरी नैना की मुस्कराहटों की फुलझड़ियाँ थी। मेल राकेट की तरह आ रहे थे फोन छोटे बमों की तरह बज रहे थे। इसी हँसी खुशी में हमने भी ऐलान कर दिया कि आज शाम को हम कुर्ता पाजामा पहनेंगे। पत्नी भी कह उठी कि ये आवाज किस लोक से आई हैं। कुर्ता पाजामा निकाल प्रेस वाले को भेज दिया गया।

तभी घड़ी ने 11 बजे के 11 बम फोडे और मोबाईल भी क्यूँ पीछे रहता तो वो भी बज उठा। और उसमें से आवाज आई Happy Diwali" बेटा। मैं झट से बोल उठा "साले तेरे को भी, और सुना क्या हो रहा है।" वो बोला " क्या होना है? शादी हुई नही, जो कुछ होता भी और नौकरी बजा रहे है आज दिवाली के दिन भी, हाँ पता है बेटा आज उसका फोन आया था" मैं बोला "किसका साले" वो बोला वही जैन साहब का, बोल रहा था "कि हम तो सबको साथ लेकर चलने वाले है जी", आज से पहले तो कभी नही किया आज कैसे क्यूँ किया।" मैं बोला बेटा तू जो जी न्यूज में चला गया है इसलिए किया है उसने बधाई फोन, "आजकल आदमी को नहीं उसके रुतबे को सलाम किया जाता हैं" आज से पहले तो नही किया था ना उसने फोन।" वो बोला "अरे बेटा हम कौन से कम हैं।" मैं समझ नही सका कौन कम और कौन नहीं। दिल की जाने वाली बातें कहाँ गायब हो गई। और बातें करके फोन रख दिया गया।

नीचे गया देखूँ कि शाम के खाने के लिए क्या तैयारी चल रही हैं। देखा तो मम्मी नही थी, पूछा तो बताया कि " वो है ना .... उसके साले को किसी ने मार दिया पैसे की खातिर, कल सुबह पैसे लेके निकला था और आज सुबह लाश मिली गटर में।" चंद पैसे की खातिर एक जान, कितनी सस्ती हो गई हैं एक जान। जिदंगी भर हर दिवाली याद आऐगी इस परिवार को इस इंसान की।

शाम के खाने का मेन्यू तैयार हो चुका था मैं बोला पत्नी से "यार उसके यहाँ हो आता हूँ इस बार वह लेट हो गया, मैं ही आज पहले निकल जाता हूँ दिवाली की मुबारक दे आता हूँ।" वो बोली " कि ठीक है आप चले जाओ पर फोन कर लो एक बार जाने से पहले कहीं भाई साहब हमारे घर ही ना आ रहे हो।" मैं बोला " हाँ ये ठीक रहेगा।" फोन किया गया तो पहले तो बधाईयों का आदान प्रदान हुआ। फिर वो बोला " यार मैं यहाँ मेरठ में शिफ्ट हो गया हूँ राजेन्द्र नगर से" मैं एकदम दंग रह गया बोल उठा " तुने पहले क्यों नही बताया" वो बोला "यार तू परेशान होता इसलिए नही बताया बस और बताने को था ही क्या जो बताता, ये बताता कि यार कर्जा बहुत हो गया है घर दुकान बेच कर मेरठ जा रहा हूँ। " मेरी जुबान चुप हो गई और उसकी आवाज भारी हो गई, कुछ पल की दोनो के बीच की चुप्पी बहुत कुछ कह रही थी।
इन सबके बीच बेटी उछल खुद माचती रही, जो भी डिब्बा नजर आता उसे खुलवाती और थोड़ा खाकर फिर उस डिब्बे को हाथ भी नही लगाती। बेटी पास आकर बोली कि " पापा मार्किट चलो" उसे लेकर घर के पास वाली मार्किट में गया जहाँ भीड़ ही भीड़ थी। और मेरी बेटी हाथ के इशारे मुझे समझाती जाती। एक दुकान पर रुका एक जानी पहचानी 10 या 15 साल की लड़की को देखकर । उससे पूछा "बेटा क्या हाल हैं कैसे चल रही है दुकान।" वो बोली "ठीक ठाक हैं बस" और उसका बाबा हाफंता हुआ खड़ा था एक तरफ। वो बोला कि बस काट रहे है जिदंगी को। ये लडकी और एक इसका भाई वो भी 10 या 15 के बीच का होगा। ( दोनो की सही उम्र का मुझे पता नहीं) अपने दादा दादी और एक छोटी बहन का पेट पाल रहे हैं। इस लड़की का पिता कभी मेरे साथ क्रिकेट खेला करता था। कुछ के साल पहले किसी बिमारी से निधन हो गया था उसका । और फिर चंद महीनों बाद ही लड़की की माँ भी गम करती करती यह दुनिया छोड़ गई। और फिर इन तीनों बच्चों के पालने का जिम्मा आ गया इनके बुढे दादा दादी पर जिन्हें खुद ही जरुरत थी किसी के सहारे की। धीरे धीरे ये बच्चे बडे हुए और अपने पापा की दुकान सभांल ली । इनकी दादी से चला नही जाता और दादा चल फिर रहा है बस वो भी कापंता हाफंता। एक इन बच्चों का ताऊ है पर ........। अगर आज इनका बाप होता तो ये भी नये नये कपडे पहने होते और इनके चेहरे खुशी से चमक रहे होते। और मैं अपनी बेटी को देखने लगा पता नही क्या सोचकर ......।

शाम हुई तो मम्मी नही आई इसलिए पापा , बहन और पत्नी दीये जलाने लगे। पर उनकी सख्या कम थी पहले की अपेक्षा और मोमबतियाँ तो और भी कम थी। छत पर जाकर देखा छतों पर दिये नही थे ना ही मोमबतियां बस एक आध नजर आ रहे थी । जिधर देखो बिजली की लडियाँ थी वो भी पहले से कम । क्या हो रहा था पता नहीं, दिवाली की पहले वाली रौनक कहाँ चली गई । दिये रखकर नीचे आए तो देखा कि जो परात कभी खिल और मीठे खिलोनो से भरी होती थी वो आज आधी भी नही थी। समझ नही आ रहा था इस दिवाली क्या हो रहा हैं। दिये नही, मोमबतियां नही, खिल नही, मीठे खिलोने नही, है भी तो बस शगुन के लिए। खाना खाकर छत पर गए कि एक आध अनार छोड़ेगे। छोटा भाई खरीद लाया था मेरा मन कभी हुआ नही कि बम फोडू। चारों तरफ आकाश में आतिशबाजी चमक रही थी और मेरी बेटी अनार, फुलझड़ी, फिरकनी को देखकर झूम रही थी।
नीचे आए सोने के लिए तो वो कुर्ता पजामा खुंटी पर टंगे हुए थे और ऐसा लग रहा जैसे मुझे घुर रहे हो और पूछ रहे क्यूँ जी हमें पहना क्यों नहीं।

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