Monday, October 20, 2008

एक लड़की की कहानी

एक लड़की एक पहेली

वह लड़की एक पहेली थी
कहने को तो इसकी ढ़ेरों सहेली थी
फिर भी यह अकेली थी।

मुस्कराती थी, खिलखिलाती थी, देर तक बतियाती थी
पर ना जाने अकेले में किस सोच में डूब जाती थी।

कभी-कभी वह बच्चों सी बातें करती थी
और कभी वो फ्रायड को भी मात दे जाती थी।

जब कोई बात ना होती थी
तब वह अपने कोमल हाथों से सपने बुनने लगती थी
कभी आसमान को छूने के सपने
कभी सुन्दर, प्यारे घर के सपने
परंतु अपनो के सपने पूरे करने में वह अपने सपने भूल जाती थी।

आज मिली वही रस्तें में बोली "कैसे हो तुम"
मैं पहचान ना सका, बस एकटक देखता रहा
उसके खुरदरे हाथों को
उसकी आँखो के नीचे के काले घेरों को
उसकी हडिडयों की काया को
उसकी आँखों में आये एक आँशू को
मैं बोला "तुम वही हो ना जिसका नाम मैंने "पहेली" रख दिया था"
वो बोली "हाँ वही पहेली, जिदंगी की पहेली सुलझाते सुलझाते सच में ही एक पहेली बन कर रह गई
यह बात कहते ही वह जार जार रो पड़ी, जो कभी बात बात पर हँसती थी।

Thursday, October 16, 2008

प्रेम करने वाली लड़की

प्रेम करने वाली लड़की


प्रेम करने वाली लड़की अक्सर हो जाती है खुद से गाफ़िल और दुनिया को अपने ही ढ़ग से बनाने-सँवारने की करती है कोशिश।

प्रेम करने वाली लड़की हवा में खूशबू की तरह बिखर जाना चाहती है उड़ना चाहती है स्वच्छंद पंछियों की तरह धूप सी हँसी ओढ़े।

वह लड़की भर देना चाहती है उजास चँहु ओर।

प्रेम करने वाली लड़की सोना नही, चाँदी नही,गाड़ी नही, बँगला नही।
चाहती है बस किसी ऐसे का साथ जो समझ सके उसकी हर बात और अपने प्रेम की तपिश से उसे बना दे कुंदन सा सच्चा व पवित्र।

अब वह आईना भी देखती है तो किसी दूसरे की नजर से परखती है स्वंय को और अपने स्व को दे देती है तिलांजलि।

प्रेम करने वाली लड़की के पाँव किसी नाप की जूती में नही अटते, समाज के चलन से अलग होती है उसकी चाल।

माँ की आँख में अखरता है उसका रंग-ढ़ग, पिता का संदेह बढ़ता जाता है दिनों दिन और भाई की जासूस निगाहें करती रहती है पीछां ।

गाँव-घर के लोग देने लगते है नसीहतें समझाने लगते है ऊँच-नीच अच्छे-बुरे के भेद मगर प्रेम करने वाली लड़की जानना समझना चाहती है दुनिया को

और एक माँ की तरह उसे और सुंदर बनाना चाहती है ।


रचनाकार- रमण सिहँ

(यह कविता सामयिक वार्ता में छपी थी )
महेश सिँह जी( प्रबधंक संपादक सामयिक वार्ता) की अनुमति से इस प्यारी रचना की पोस्ट डाली जा रही हैं।
आजकल समय अभाव के कारण कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ इसलिए अपनी पसंद की कुछ रचनाएं डाल रहा हूँ जो पहले ही फाईल में सेव हैं।

Thursday, October 2, 2008

माँ

एक दिन मैं साहित्य अकादेमी की लाईब्रेरी में हिंदी की पत्रिकाओं को उलट- पुलट रहा था। तो वहाँ किसी पत्रिका में एक कविता पढ़ी जो " माँ " पर लिखी गई थी। उसमें एक लाईन थी "माँ तू मेरी बेटी हैं।" उस लाईन ने मुझे अपनी तरफ खींचा। जब पढ़ी तो अच्छी लगी। यह कविता तुषार धवल जी की लिखी हुई थी और आखिर में उनका मेल पता लिखा था। मेल से सम्पर्क किया गया। बातें हुई। और ईद के दिन ऐसे ही ख्याल आया क्यों ना इस कविता को ब्लोग पर डाला जाए। फिर उनसे अनुमति लेकर आज आपके सामने पेश कर दी हैं।


माँ

तू मेरी माटी की गाड़ी
तू मेरे आटे की लोई
माँ तू मेरी बेटी हैं

उगा तुम्हीं से
तू बह रही सरल
समय बदलता रहा अर्थ
तेरा मेरी आँखों में

गालों को तेरे चूमा नोचा
खेल झमोरा बालों को
माँजे तुम संग बासी बर्तन

तू रोई जब मैं रोया
तेरी आँखों में आकाश पढ़ा

तू मेरा पहला '' हैं
मेरा ''
मेरा वन तू
माँ तू मेरी जोड़ी हैं

देह नहीं तू
बस धारा हैं
बह कर तुम में अनगिन जीवन
घुघुआ मैना खेल रहे हैं

कब बड़ा हुआ जो कभी मरुँगा
मेरी तू नस नाड़ी अमर
अलता बिन्दी सिन्दूर टिकली
तू रचना के पार खड़ी हैं
भाषा में अनकही अनन्त

तू उँगली डगमग कदमों की
मेरा जूता गंजी जंघिया
तू मेरी
कागज की नौका
तू मेरे गुब्बारे गैस के
तू लोरी काली रातों में
तू मेरा विस्तार प्यार का
माँ तू मेरी बेटी हैं

तू मेरी माटी की गाड़ी
तू मेरे आटे की लोई
माँ तू मेरी बेटी हैं

तुषार धवल

दो अक्तूबर, दो इंसान, और दो बातें


दो अक्तूबर और दो महान इंसान











आज दो अक्तूबर हैं दो महान इंसानो का जन्मदिन । एक ने सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। दूजे ने सरलता और नैतिकता का उदाहरण पेश किया। हमें वो तो याद रहे पर उनके संदेश और उदाहरण हम भूल गए। और आज के दिन हम बड़ी बड़ी बात ना करके बस उनके संदेशो को फिर से जाने, समझे और अपनाए तो इससे बड़ी कोई बात ना होगी। इसलिए पेश हैं दो बातें। पढे और अपनी बात भी रखे।

1. अधिकार या कर्तव्य ?

मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसने समाज को मुसीबत में डाल रखा हैं। एक तरफ पूंजीपति और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। अगर सब लोग सिर्फ अपने हकों पर ही जोर दें और फर्जों को भूल जाए, तो चारों तरफ बडी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए। अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फर्ज अदा करे, तो मनुष्य जाति में जल्दी ही व्यवस्था और अमन का राज्य कायम हो जाए। इसलिए यह जरुरी हैं कि हम हकों और फर्जों का आपसी सम्बंध समझ लें। मैं यह कहने की हिम्मत करुंगा कि जो हक पूरी तरह अदा किये गये फर्ज से नहीं मिलते, वो प्राप्त करने और रखने लायक नहीं हैं। वे दूसरों से छीने गये हक होंगे। उन्हें जल्दी से जल्दी छोड़ देने में ही भला हैं। जो अभागे माँ-बाप बच्चों के प्रति अपना फर्ज अदा किये बिना उनसे अपना हुक्म मनवाने का दावा करते हैं, वो बच्चों की नफरत को ही भड़कायेंगे। जो बदचलन पति अपनी वफादार पत्नी से हर बात मनवाने की आशा करता हैं, वह धर्म के वचन को गलत समझता हैं; उसका एकतरफा अर्थ करता हैं। लेकिन जो बच्चे हमेशा फर्ज अदा करने के लिए तैयार रहने वाले माँ-बाप को जलील करते हैं, वो कृतघ्न समझे जायेंगे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज्यादा नुकसान करेंगे। यही बात पति और पत्नी के बारे में भी कही जा सकती हैं। अगर यह सादा और सब पर लागू होनेवाला कायदा मालिकों और मजदूरों, जमींदारों और किसानों, राजाओं(सरकार) और हिन्दू, मुसलमानों, सिख, ईसाई पर लगाया जाय, तो हम देखेंगे कि जीवन के हर क्षेत्र में अच्छे से अच्छे सम्बंध कायम किये जा सकते हैं। और, ऐसा करने से न तो हिन्दुस्तान या दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह सामाजिक जीवन या व्यापार में किसी तरह की रुकावट आयेगी और न गड़बड़ी पैदा होगी।

एक हिन्दू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रति क्या फर्ज होना चाहिऐ ? उसे चाहिऐ वह एक मनुष्य के नाते उससे दोस्ती करे और उसके सुख-दुख में हाथ बंटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे हे बरताव की आशा रखने का हक प्राप्त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ वैसा ही बरताव करे जिसकी उसे उम्मीद हो। मान लीजिये कि किसी गाँव में हिन्दुओं की तादाद बहुत ज्यादा हैं। और मुसलमान वहाँ इने-गिने ही हैं, तो उस ज्यादा तादादवाली जाति की अपने थोडे से मुसलमान पड़ोसीयों की तरफ की जिम्मेदारी कई गुनी बढ जाती है। यहाँ तक कि उनहें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाहिये कि उनके धर्म के भेद की वजह से हिन्दू उनके साथ अलग किस्म का बरताव करते हैं। तभी, इससे पहले नहीं, हिन्दू यह हक हासिल कर सकेंगे कि मुसलमान उनके सच्चे दोस्त बन जायें और खतरे के समय दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिन मान लीजिये कि वे थोड़े से मुसलमान ज्यादा तादाद वाले हिन्दुओं के अच्छे बरताव के बावजूद उनसे अच्छा बरताव नहीं करते और हर बात में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज्यादा तादादवाले हिन्दुओं का क्या फर्ज होगा ? बेशक, बहुमत की अपनी दानवी शक्ति से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो बिना हासिल किये हुए हक को जबरदस्ती छीनना होगा। उनका फर्ज यह होगा कि वे मुसलमानों के अमानुषिक बरताव को उसी तरह रोकें, जिस तरह वे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरताव को रोकेंगे। इस उदाहरण को और ज्यादा बढ़ाना मैं जरुरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ कि जब हिन्दुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हो और हिन्दु सिर्फ इने-गिने हों, तब भी बहुमत वालों को ठीक इसी तरह का बरताव करना चाहिये। जो कुछ मैंने कहा हैं उसका मौजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उठाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने वाली बन गई हैं, क्योंकि लोग अपने बरताव में इस सिन्द्धात पर अमल नहीं करते कि कोई फर्ज पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे सम्बंध रखनेवाला हक हासिल होता है।

2. गुड, बच्चा और गाँधी

एक बार एक औरत अपने बच्चे के साथ गाँधी जी से मिली । और उसने कहा कि गाँधी मेरा बच्चा गुड बहुत खाता है आप इसे मना कर देगे बहुत अच्छा होगा और ये आपका कहा नही टालेगा। गाँधी जी बोले कि आप कल आना अपने बच्चे के साथ। वह औरत अगले दिन पहुँच गई अपने बच्चे के साथ। और बोली कि गाँधी जी मै आ गई हूँ। गाँधी जी बच्चे को अपने पास बुलाया और कहा कि ज्यादा गुड खाना अच्छा नही होता है। पर वह औरत तुरंत बोली कि गाँधी जी ये तो आप कल भी बोल सकते थे हमें आज क्यों बुलाया। गाँधी जी बोले कल तक तो मैं भी बहुत गुड खाता था पर अब मैंने खाना छोड़ दिया हैं। जो काम मैं खुद नही करता उसी काम के लिए ही तो मैं किसी को मना कर सकता हूँ। और वह औरत अपने बच्चे के साथ खुशी खुशी अपने घर को चल दी।

जरा विचार भी करें।

नोट- फोटो गूगल से लिए गये हैं और विचार गाँधी साहित्य से।






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