Sunday, September 28, 2008

कल बेटी का जन्मदिन मनाया, आज भगत सिंह का जन्मदिन मनाऐंगे।

भगत सिंह को याद करते हुए, मनाएं उनका जन्मदिन।



अपना पेट तो पशु सरीखा,
हर कोई हर दम भरता ।
धन्य जीना उस महापुरुष का,
दूसरों के लिए मरता॥



आओ, सिमरो भगत सिंह सूरमा, लो शीश उसकी सोच पे झुका।
रोज़ जनमें भगत हीद जैसे, देते देश आज़ाद करा।
ज़िन्दाबाद सदा नारा इंक़लाब का, दिया घर-घर हिन्द में पहुँचा।
भाई पुजारी मुल्लां मक्का, रहे हउओं से लोगों को डरा।
तर्कों की तेग़ तीखी पकड़के, वहमों को किया था फना।
नित्य नया खंडा बरते विज्ञान का, सोच सान पर लिया जो घिसा।
आओ, सिमरो भगत सिंह सूरमा, लो शीश उसकी सोच पे झुका।

जब से सुना हैं हमने,
मरने का नाम ज़िन्दगी हैं,
सर पर कफन लपेटे,
क़ातिल को ढूँढते हैं



दिल से निकलेगी न मरके भी
वतन की उलफ़त।
मेरी मिट्टी से भी,
ख़ुशबूए वतन आएगी॥

मरके भी हम मिट्टी अन्दर,
दफनाए रह नहीं सकते।
युगों युग, हर दिल में,
हर पल जोत आज़ादी जगाएँगे॥


नोट- ये विचार चरण दास सिंधू जी के भगत सिंह पर लिखे तीन नाटकों से लिए गए है जिनका प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया हैं। और सभी फोटो बी बी सी हिंदी से लिए गए है। सभी का बहुत धन्यवाद।


Thursday, September 25, 2008

यह है काल सेंटर की दुनिया

काल सेंटर

बड़ी सी यह काँच की इमारत
दिखती हैं बड़ी चमकली हैं।

जहाँ खिलती टेलिफोन पर
खट्टी-मिट्ठी बातों की फुलझड़ी हैं ।

कोई माल बेचता
कोई सूचना देता
कोई पैसे वसूलता
कोई समस्या सुलझाता।

लड़के-लड़कियों यहाँ सब बराबर
लक्ष्य पर रहती इन सबकी नज़र।

खुदा का भय यहाँ नही चलता
बोस का डर हमेशा साथ-साथ रहता।

बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।

Sunday, September 21, 2008

लगता हैं तुम इंसान नहीं।

जिधर देखो इंसान के सपनों का खून हो रहा।

समझ नहीं आता कि क्यों इंसान को इंसान मार रहा। रोज ही ऐसा मंज़र देखने को मिल रहा दुनिया के अलग-अलग कोनों में। कोई मासूम सा बच्चा सवाल कर रहा। हँसती खेलती बच्ची की हँसी गायब हो गई। किसी माँ की आँखे पथरा गई रोते रोते। किसी के बुढ़ापे का सहारा छीन गया। किसी का दोस्त बिछड़ गया। इन्हीं की पुकारों को सुनकर एक तुकबंदी की थी जिसका प्रकाशन "साहित्यशिल्पी" ने किया। आप अवश्य पढ़े । आप नीचे दिये लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
एक दर्दनाक मंज़र

Wednesday, September 10, 2008

एक बच्चा जो हैं सबका प्यारा, पर............................

एक बच्चा
सुन्दर,बलवान सा
चेहरे पर तेज़ लिए
सादा सा लिबास पहने
घूमता-फिरता, इधर-उधर
कभी इस गली, कभी उस शहर
जिसकी चर्चा होती रहती
टीवी और अखबारों में
लेखकों की सभाओं में
नेताओं की संसद में
गाँव की चौपालों में
आम-जन की बातों में
सब के सब बात ही करतें
पर कोई इसे अपनाता नहीं
क्योंकि
बच्चें का नाम सत्य है
और सत्य के साथ कोई होता नहीं

Sunday, September 7, 2008

चाय की दुकान और एक लेखक


एक जिदंगी यह भी 

अगर आप आई.टी.ओ. के आसपास हैं और थकान से चूर-चूर हो रहे है। चाहते है कि थकान पल भर में दूर हो जाए और शरीर में थोड़ी फुर्ती भी आ जाए तो आप विष्णु दिगम्बर मार्ग की तरफ हो लीजिए। जब आप इस मार्ग पर आऐंगे तो आपको पंजाबी भवन और हिंदी भवन दिखेगा। आप रुकिए और पंजाबी भवन के गेट के पास से हिंदी भवन की तरफ बीच में एक सांवला सा आदमी कमीज़ पेंट पहने एक चाय की छोटी सी दुकान लगा कर बैठा होगा। दो स्टोव, कुछ प्लास्टिक के कप, दो कपड़े के थैले समान से भरे हुए, ग्राहकों को बैठने के लिए दो बडे सपाट पत्थर और खुद के बैठने के लिए एक सपाट पत्थर जिस पर एक दरी बिछी होगी और वह आदमी नंगे पैरों को मोड़ कर बैठा चाय बना रहा होगा। आप उन्हें एक चाय का आर्डर दीजिए। चंद ही मिनटों में एक कड़क चाय आपके सामने पेश हो जाऐगी। और चाय का एक घूंट पीते ही आपको नई ताज़गी का अहसास होगा। अब आप कहेगे कि चाय की दुकान तो देख ली पर लेखक जी से तो मिलाईए। अजी मिला तो दिया। यही लेखक भी है और चाय वाले भी। आप चौकिएं मत। इनका नाम श्री लक्ष्मण राव जी है। जिनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये आपको चाय के साथ साथ साहित्य का रस भी पिलाऐंगे। जब आप पूछेंगे कि क्या आप अपनी लाईफ से संतुष्ट हैं। तो कहेंगे कि जनाब संतुष्ट हो या ना हो संतुष्ट होना पड़ता हैं। चाय बेचकर ठीक ठाक  कमा लेता हूँ और अच्छी खासी  रायल्टी मिल जाती है किताबों से, फिर क्यों छोडू इस चाय के पेशे को। खुद ही छपवाता हूँ और फिर खुद ही बेचता हूँ अपनी साईकिल पर किताबों के थैले टांग कर किताबों की दुकानों को , लाईब्रेरीयों को, और लोगों को। मैं लेखकों की तरह  एक सफेद कुर्ता पाजामा पहन और एक थैला टांग कर नही रह सकता। मेरी पहली किताब रामदास पर थी जो हमारे गाँव का एक लड़का था एक दिन वह छुट्टियों में अपने मामा के गाँव गया । जब वह लोटने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी और उसके चमकते हुए पानी में उसने छलांग लगा दी। वह फिर कभी लौट कर नहीं आया। मैं इस घटना पर लिखना चाहता था इसलिए रामदास पर मैंने पहली किताब लिखी एक उपन्यास के रुप में। बस वही से शुरुआत हो गई। आज  सन 2008 में मेरी नई रचना आई है "रेणु" के नाम से। यह है मेरा सफर।  नीचे दिया इनका जीवन परिचय उसी किताब से लिया गया है। जिसका प्रकाशन "भारतीय साहित्य कला प्रकाशन ने किया हैं। जीवन परिचय देने के लिए राव जी का दिल से शुक्रिया ।    

जिदंगी के पन्नों पर कुछ ऐसा लिखा जाए, जो पवित्र पुस्तक की तरह सुबह शाम पढा जाए - स्वेट मार्डेन  

श्री लक्ष्मण राव का जन्म 22 जुलाई, 1954 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में एक छोटे से गाँव तडेगांव दशासर में हुआ। उन्होंने मराठी भाषा में माध्यमिक कक्षाएं, दिल्ली तिमारपुर पत्राचार विधालय से उच्चतर माध्यमिक व दिल्ली विश्वविधालय से बी.ए. उर्तीण किया। जब लक्ष्मण राव जी ने दसवीं कक्षा पास करके महाराष्ट के अमरावती शहर में, सूत मिल में टेक्सटाइल मज़दूर के रुप में काम किया तो कुछ दिनों के बाद वह मिल बिजली कटौती के कारण बंद हो गई। राव जी अमरावती से अपना सामान उठाकर गांव चले गए। वहाँ वे खेती का काम करने लगे। वे हमेशा मानसिक तनाव से ग्रस्त रहने लगे। एक महीने के बाद मई महीने में पिताजी से झूठ बोलकर 40 रुपये लिये और गांव से भोपाल आ गए। यहां तक 40 रुपये समाप्त हो गये। लक्ष्मण राव भोपाल में ही एक भवन पर पांच रुपये रोज़ से बेलदार का काम करने लगे। तीन महीने भोपाल में रहकर 30 जुलाई 1975 को जी.टी. एक्सप्रेस से दिल्ली आये। दिल्ली में दो तीन बिरला मंदिर की धर्मशाला में ठहरे। काम ढूंढ रहे थे पर मिल नहीं रहा था। जीवन के कठिनतम समय पर राव जी ने ढाबों पर बर्तन साफ करने का काम स्वीकार किया। दो वर्ष लगातार यही चलता रहा, कभी ढाबों पर बर्तन साफ करना, कभी भवनों पर मज़दूरी करना आदि। 1977 में दिल्ली जैसे भीड़ भरे शहर में आई. टी.ओ. के विष्णु दिगम्बर मार्ग पर राव जी पेड़ के नीचे बैठकर पान-बिड़ी, सिगरेट बेचने लगे। वस्तुत: उनकी छोटी सी दुकान दिल्ली नगर निगम व दिल्ली पुलिस अनेक बार उजाड़्ती रही पर उन्होंने एक सफल साहित्यकार बनने का सपना अधूरा नहीं छोड़ा। राव जी दरियागंज के रविवारीय पुस्तक बाज़ार में जाकर अध्ययन करने हेतु पूरे सप्ताह भर के लिए साहित्य खरीदकर लाते थे। उन्ही दिनों उन्हें साहित्य सम्राट शेक्सपीयर, यूनानी नाटककार सोफोक्लीज का पता चला। इसी तरह मुन्शी प्रेमचंद, शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय आदि साहित्यकारों की पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। लक्ष्मण राव जी का पहला उपन्यास ' नई दुनिया की नई कहानी' 1979 में प्रकाशित हुआ। उस समय वे चर्चा का विषय बन गए। एक पानवाला उपन्यासकार, लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। परंतु टाइम्स आफ इंडिया के संडे रिव्यू में उनका परिचय प्रकाशित हुआ। यह बात एक फरवरी 1981 की है। तब उनके कार्य पर लोगों को विश्वास होने लगा। साहित्यकार लक्ष्मण राव जी को अग्रेंजी भाषा का भी ज्ञान हैं। अग्रेंजी समाचार पत्र व पुस्तकें पढना उनका प्रतिदिन का नियम है। अमेरिका से प्रकाशित साप्ताहिक टाइम पत्रिका पढ़ना उनका शौक बन गया है। 
सम्मान 
भारतीय अनुवाद परिषद सहित लगभग 11 संस्थाओं से सम्मान। 

अबतक का लेखन 
साहित्य की रचनाएं 
1. नई दुनिया की नई कहानी  2. रामदास  3. शिवअरुणा  4. सर्पदंश  5. साहिल 6. पत्तियों की सरसराहट 7. प्रात: काल 8. नर्मदा 9. रेणु 
सामाजिक हिनी नाटक 
1. राष्ट्पति 2. प्रधानमंत्री 3. प्रशासन 
वैचारिक हिन्दी साहित्य 
1. द्रषिटकोण 2. अंहकार 3. परम्परा से जुड़ी भारतीय राजनीति 4. समकालीन संविधान 5. अभिव्यक्ति 6. मौलिक पत्रकारिता 
आत्मकथा एंव जीवनी 
1. साहित्य व्यासपीठ ( आत्मकथा) 2. संयम ( राजीव गाँधी की जीवनी) 

चर्चा 
बहुत सारी देश-विदेश की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चर्चा  
नोट: राव जी का फोटो www.tribuneindia.com से लिया गया है। इसके लिए उनका शुक्रिया।
आप इस लिंक से भी इनके बारें में पढ सकते हैं। 

Friday, September 5, 2008

शिक्षक दिवस और मेरे गुरु

ओड़क ता टूट जाणे
            सारे रिशतें नाते 
फेर क्यों न बणा 
             अम्बर दा तारा टूंटा ?
 आज शिक्षक दिवस है। और आज की पोस्ट की शुरुवात भी अपने गुरु  के लिखे शब्दों से कर रहा हूँ । मैंने कभी गाँधी , भगत सिहँ को नहीं देखा। पर अपने गुरु में मैने देखा गाँधी सा  सादा पहनावा, सादा रहना और भगत सिहँ सा  अन्याय से लड़ने का ज़ज़्बा अपने लेखन से। आप जब मिलेंगे तो यह इंसान एक कमीज और एक लूंगी पहने मेज पर बैठा कुछ पढता या लिखता हुआ मिलेगा। आप नमस्कार करेगे  तो बोलेंगे आओ भाई। जब आप उनके कमरे में जाऐगे तो देखेगे कि एक छोटा सा कमरा , एक छोटा सा बेड, एक छोटी सी मेज, एक लकड़ी की कुर्सी , और उसी कमरे में दो लकड़ी की अलमारी जिन पर काग़ज पर लिखी हुई बहुत सारी  सूकितयाँ चिपकी हुई मिलेगी। जिन्हें पढ़कर आपमें एक होंसला पैदा होगा जीने का, लिखने का, लोगो के लिए काम करने का। इस कमरे का एक गेट बाहर एक बड़े से मैदान की तरफ खुलता है। जहाँ से क्रिकेट खेलते बच्चें दिख जाऐगे। एक बार मैने पूछा कि सर आपको परेशानी महसूस नही होती इनकी आवाजों से  लिखने में सोचने में। वो बोले " कि उल्लू के पट्ठे ये मेरा बचपन है जिसे मैं रोज देखता हूँ। और अच्छी अच्छी गालियाँ  भी सुनने को मिल जाती । और छत पर एक छोटा सा पंखा है। कोई कूल्लर नही, कोई A.C नही । ऐसा नही कि वो उसका खर्चा वहन नही कर सकते। मैडम जी के कमरे में लगा हुआ है। आप पूछोगे कि सर आपको  गर्मी नही लगती तो कहेगे" कि उल्लू ...... जब गर्मी लगे तो बाथरुम में जाकर आधा बाल्टी पानी से नहा लो। लो हो गई गर्मी दूर" । जब आप बात करेगे तो उनकी बातों जोश होगा वजन होगा । मुझे याद वो दिन जब मै समय लेके गया  था उनके पास कुछ पूछने अग्रेंजी से सम्बधित शंका ।घर जाके पता चला कि उनकी तबीयत ठीक नही है। सांस लेने में दिक्कत हो रही है। इनको कई बीमारियाँ है दमा, शूगर, दिल की, पैरों के घुटने की। खैर मैं उनके पास बैठ गया। उनके डाक्टर दामाद को फोन किया जा चुका था । उनकी बताई दवाई दी जा चुकी थी। पर फिर भी सांस लेने में दिक्कत थी। मैं अपने हाथो से उन्हे पानी पी ला रहा था बिस्कुट खिला रहा था। और वो बीच बीच में कह रहे थे कि सुशील आज तेरी पढाई का नुकसान हो गया। मेरी आँखे नम थी। और मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था । खैर उनके दामाद आये और उन्हें अपोलो में भरती करा दिया गया। जब उन्हें कार में बैठा रहे थे तो भी वो बोले कि बेटा तेरी पढाई का नुकसान हो गया आज। ऐसे हैं मेरे गुरु।  
उनसे जुडा एक पहलू और देखिए। उनकी किताब से "नाटय कला और मेरा तजुरबा -विदुषी प्रकाशन" से ।
9 अगस्त 1967 जब मैं अमरीका के लिए जहाज़ चढ़ा, दो मोटी किताबें मेरे झोलें में थी: बरनर्ड शा के पूरे नाटक और शेक्सपीयर के पूरे नाटक। फुलब्राइट वज़ीफा मुझे मिला था एक साल के वास्ते। अमरीकन साहित्य पढने के लिए। पहले पांच महीने की पढाई में मैंने इतनी मेहनत की, मेरे ग्रेड इतने बढिया आये, तीन चार टीचरों ने मुझे आगे वज़ीफे के लिए अर्जी देने को कहा। उन्होंने मुझे मोटा वज़ीफा दिलवा दिया। एक साल बाद मैंने एम.ए का इमितहान दिया- ताकि अंग्रेजी का डबल एम .ए बन संकू। मेरी फस्ट डिवीजन आई और नंबर भी सबसे ज़्यादा मिले। विभाग के हैड डा. राइआऊट ने मुझे मिलने की इच्छा जताई। आधा घंटा बातचीत हुई। राइडआऊट ने कहा: "मैंने तेरे जवाब पढ़े । तू साहित्य का महा पंडित बनेगा। उच्च आलोचक बनेगा। आई ग्रीट यू आन द थरैशोल्ड आफ ए ग्रेट कैरियर।" मैं घंटा भर कैंपस की विशाल, सुंदर, मनमोहक झील के किनारे बैठा सोचता रहा। अपनी चार बेटियों को, पत्नी को, माता-पिता को, मुल्क को, याद करके रोता रहा। सबसे हज़ारों कोस दूर बैठा। - " अगर ये लोग मुझे इतना क़ाबिल समझते हैं, अगर मैं पराये देश में बैठा, बेगानी बोली में, इनसे बेहतर काम कर सकता हूँ, तब अपनी बोली में, अपने लोगों के वास्ते, मैं क्या नहीं कर सकता? मुझे अपना जीवन संयम से , सोच-समझकर, जीना चाहिए।" 
ये था इनका दूसरा पहलू। अब देखिए तीसरा पहलू।
जिदंगी को नज़दीक से देखे बगैर आप बढिया नाटक नही लिख सकते । धरती से, अपने लोगो से, हर समय जुड़े रहना जरुरी है। इसके लिए मैने अनोखा तरीका अपनाया। छ्ब्बीस साल से मैं यह तरीका बरत रहा हूँ। बरस में एक या दो बार भेष बदल कर लोगो के नजदीक जाना। इस तजरबे ने मुझे नाटक के बास्ते चोखा मसाला दिया। मैंने पात्रों से एकरुप होने का अभ्यास किया। मालायें-मुंद्रिया बेचने वाला बना तो हर देहाती के सामने हर हीले इस रोल को निभाया। हाथ देखने वाला पंडा बना तो वही पाखंड किये। हसितनापुर जिला मेरठ से गंगा में नहाकर , पैदल चलकर , मथुरा यमुना पहूँचा। भेस था साधू का। मैं परख कर देख रहा था गृहस्थ त्यागने वाले महावीर जैसे, गौतम  जैसे, कैसे महसूस करते होंगे? बाबा नानक किन तजुरबों में से , मुशिकलों में से, गुजरा होगा जब वह चारों दिशाओं में यात्रा करता हुआ भारत के कोने-कोने तक पहूँचा था? इस यात्रा पर मैं अकेला जाया करता हूँ । मेरे पास घड़ी नही होती। चश्मा नही होता। पगड़ी बांधे, धोती कुरता पहने, छड़ी पकड़े, गंवारों संग गंवार बना, मैं अदृश्य सा चलता हूँ। कभी आधी रात तारों की छांव के नीचे, कभी पंछियों पशुओं संग जागता हुआ पौ फुटाला की बेला, कभी सख़्त दोपहर को, थका, टूटा, भूखा। गाँवो में घूमता हुआ, इस बात का मैं ख़ास ख़्याल रखता हूँ। मैं अपनी अकेले रहने की तपस्या भंग नहीं होने देता। अपने घर वालों से इतना सा रिशता होता हैं: थैले के अंदर एक काग़ज़- जिस पर लिखा होता हैं," अगर किसी दुघर्टना के कारण मैं मर जाऊं, मेरी देह, बग़ैर किसी धार्मिक रस्म के जला दी जाये। उसके दो दिन बाद, नीचे लिखे पते पर मेरी पत्नी और बच्चों को ख़बर कर दी जाये।"
ये था इनका तीसरा पहलू। इनके ऊपर मैंने भी एक तुकंबदी की थी। वो भी पेश है। 

वह कौन ? 

देखो वह साँवला जोशीला
पहने सादी पेंट और सफेद कमीज
आँखो पर जो पहने मोटा चश्मा
पैरो में कपडे के जूते
और कंधे पर डाले एक सादा झोला
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

लोग कह्ते कि वह कालेज में बच्चों को इंगलिश है पढाता
पर बच्चे कह्ते कि वह हमें जीवन जीना सिखाता
बुधिजीवी कह्ते कि वह चार चार भाषायें जानता
पर कामगार कहते फिरते कि वह हमारी बोलियाँ बोलता रहता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

किसान कह्ते कि वह रुप बदल बदल गाँव गाँव इंसानी कहानी की तलाश में घूमता फिरता
पर गाँव के बच्चे कहते कि जैसे फाहयान घूमता फिरता
कहानीकार कह्ते है कि वह कहानियों को स्टेज पर जींवत करता
पर दर्शक कह्ते कि शहीद भगत, बाबा बंतू, भजनो, किरपा, सत्यदेव, चन्नो, शंकर, कमला, ओर लेखू को देख पीछे बैठा रोया करता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

उनके दोस्त बोले घर उनका सादा सा, कमरा उनका आधा सा, जँहा लगा किताबो का ढेर
पर पडोसी बोले घर के बाहर लगी लकडी की एक प्लेट जो बोले "नेता, भिखारी, ओर हाकिमो का यहाँ ना है कोई गेट
धर्मानुयाई कह्ते फिरते कि वह किसी धर्म को नहीं है मानता
पर कोई चुपके से कह्ता कि वह नफरत को नही मानता
आलोचक कह्ते इसमें भी हैं दोष
पर दूर कहीं से आई एक आवाज ये ना हैं कोई भगवान, ये तो हैं बस एक इंसान
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

इनका नाम श्री  चरण दास सिधू, हंसराज  कालेज दिल्ली के भूतपूर्व अंग्रेजी  के टीचर,एक पंजाबी नाट्ककार, अब तक 33 नाटक लिख चुके है ओर साथ ही एक सच्चे इंसान. और आखिर में भी उनकी किताब में लिखा हुआ ही कहूँगा 

जिसको शक हो, वो करे,
और ख़ुदाओं की तलाश,
हम तो इंसान को, इस दुनिया का,
ख़ुदा कहते हैं ।


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