Tuesday, July 29, 2008

मेरी सखी

जब यह बोलती हैं
हर भाषा की मिसरी कान में घोलती हैं।


घर इसका छोटा सा
जहाँ गंगा यमुना सरस्वती की संस्कृति बहती मिलती हैं।


जब माँगे कोई इससे रहने का आसरा
बिना परवाह दे देती दो रोटी का जुगाड़ भी।


जब हो आपको अपने घर के खाने की इच्छा
तब वह आपके घर के खाने की महक अपने हाथों से परोसती हैं।


ना पुराने, ना नये ख्यालों का लिबास पहनती हैं
जो अच्छा लगा वही पहने घूमती हैं।


कभी कभी भय के साये में डरी सी रहती हैं
पर मुसीबत आने पर वीरों सा मुकाबला वह करती हैं।


इसलिए
मेरी दिल्ली
मेरे से रुठती नहीं
मुझसे छूटती नहीं।



मैं पहले अपने बचपन की दिल्ली को आपसे रुबरु कराना चाहता था। अपने बचपन के दिनों की दिल्ली की गलियों में घूमा। उन्हें एक तस्वीर में ढालने लगा पर ढाल नही पाया। फिर किसी दिन ऐसे ही एक दिन दो लाईन पता नहीं कहाँ से जहन में आ गई।

मेरी दिल्ली
मेरे से रुठती नहीं
मुझसे छूटती नहीं।

बस यह तुकबंदी बन गई। आप ही बताऐ कैसी लगी।

9 comments:

कुश said...

दिल्ली तो अपनी भी सहेली है... बहुत खूब लिखा आपने

रंजू भाटिया said...

दिल्ली तो अपनी दिल्ली है ..कहाँ जाए ग़ालिब अब दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर :) अच्छा लिखा है आपने

Anonymous said...

जब हो आपको अपने घर के खाने की इच्छा
तब वह आपके घर के खाने की महक अपने हाथों से परोसती हैं।
bhut sundar.

डॉ .अनुराग said...

जब हो आपको अपने घर के खाने की इच्छा
तब वह आपके घर के खाने की महक अपने हाथों से परोसती हैं।


ना पुराने, ना नये ख्यालों का लिबास पहनती हैं
जो अच्छा लगा वही पहने घूमती हैं।


आपके बचपन की दिल्ली अब बदल गयी है ,पर ये दिल्ली वाकई बहुत खूबसूरत थी

शोभा said...

सुन्दर पंक्तियाँ।

vipinkizindagi said...

बहुत खूब........
बहुत सुन्दर......

Udan Tashtari said...

मेरी दिल्ली
मेरे से रुठती नहीं
मुझसे छूटती नहीं।

-बहुत बढिया.क्या बात है!

Ila's world, in and out said...

सच बात है,दिल्ली ना छूटती है,ना रूठती है.
दिल्ली का आंचल भी बहुत बडा है,सबको पनाह देती है.

राजीव तनेजा said...

ये दिल्ली...दिल वालों की है बाबू...

हमें तो बस ...
जीना यहाँ...मरना यहाँ...

इसके सिवा जाना कहाँ

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