Monday, July 7, 2008

मैं नहीं जानता मेरी कौन थी वो ?

मेरी कौन थी वो


मैं नहीं जानता कौन थी वो
क्या रिश्ता था मेरा उसका ।


समझ नहीं आता, जान नहीं पाता
किसी भी एक रिश्ते में ढाल नही पाता ।


किसी दिन जब मैं उससे रुठ जाता
दोस्त बन अपने कान पकड़ मनाया करती थी वो ।


जब मैं जीवन से निराश होता भविष्य से उदास होता
मैडम बन जीवन से लड़ना सिखाती थी वो ।


कभी कभी आँखें बंद करने को कहती
प्रेमिका बन गाल पर अपने होंठ रख छोड़ भाग जाया करती थी वो ।


कभी कभी गुड्डे गुड़िया का खेल खेलने का मन करता था
पत्नी बन रख गोद में सिर मेरा, बना बालों को काले बादल, मेरे तपते चेहरे पर जम कर बरसा करती थी वो ।


भूख लगती थी जब मुझे जोरों से
माँ बन अपने हाथों से रोटी बना खिलाती थी वो



जब भी मुझे किताबें लाने के लिए पैसे की कमी पड़ जाती
पिता बन टयूशन पढ़ाकर कमाये पैसों में से पैसे दिया करती थी वो



मैं कहता था हर रिश्ता जीना है तेरे साथ
इसलिए हर रिश्ता निभाती थी वो


मगर

दार्शनिक बन एक दिन बोली " अपना जीवन अपना नहीं दूसरों का भी होता हैं "
मैं देख रहा था किसी अनहोनी को उसकी सुजी हुई लाल आँखो में ।

बेटी बन फिर वो बोली " मैं दूर कहाँ जा रही हूँ यही हूँ तुम्हारे पास, जब बुलाओगे दोड़ी चली आऊँगी "
मैं बुला ना सका
वह लौट कर आ ना सकी ।






11 comments:

रंजू भाटिया said...

" अपना जीवन अपना नहीं दूसरों का भी होता हैं "

अच्छी लगी आपकी यह रचना

डॉ .अनुराग said...

यही जिंदगी है यार...यही इसके फलसफे.....

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

ऐसी ही होती है जिन्दगी

Udan Tashtari said...

जिन्दगी तेरे रुप अनेक: बहुत बढ़िया.

bhuvnesh sharma said...

रिश्‍ते निभाने की दुश्‍वारियों को बड़ी आसानी से ऐसे पंक्तियों में बयां कर दिया आपने....पढ़कर अच्‍छा लगा.

नीरज गोस्वामी said...

shusheel Ji
is bhavpurn rachna ke liye bahut bahut badhaii...
Neeraj

राजीव तनेजा said...

"ये बन्धन तो प्यार का बन्धन है"...

आज के ज़माने के गड्डमड्ड होते रिश्तों में अलग पहचान बनाती आपकी कविता पसन्द आई...

लिखते रहें

Anonymous said...

bhut bhavuk rachana. sundar. ati uttam. likhate rhe.

रज़िया "राज़" said...

आपकी रचना ने बडा भावुक कर दीया।लिख़ते रहिये। पथ्थ्र के दिलों को एसी ही रचना हिला देगी। धन्यवाद\

vijay kumar sappatti said...

susheel yaar ,

ye kya likh diya .. meri aankhen bhar gayi yaar..

man bhari ho gaya hai ...

मगर

दार्शनिक बन एक दिन बोली " अपना जीवन अपना नहीं दूसरों का भी होता हैं "
मैं देख रहा था किसी अनहोनी को उसकी सुजी हुई लाल आँखो में ।

बेटी बन फिर वो बोली " मैं दूर कहाँ जा रही हूँ यही हूँ तुम्हारे पास, जब बुलाओगे दोड़ी चली आऊँगी "
मैं बुला ना सका
वह लौट कर आ ना सकी ।

kya ye sirf lines hai , zindagi ka koi hissa nahi ......

kya kahun , ultimate . aapki lekhni ko mera salaam ...

lekin main distrub ho gaya yaar..

bahut kuch likhna chaah raha hoon ,lekin , gala rundh gaya hai ...

mujhe ekaant chahiye kuch der ke liye ...

rongte kadhe hai mere... aankhen nam hai ...

main aur kuch nahi kahunga ...

मीत said...

आपकी इस रचना में डूब जाने को दिल चाह रहा है...
बहुत सुंदर और गहरी है...
इसकी तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं...
मीत

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