Thursday, June 5, 2008

बुल्लेशाह की याद

बुल्लेशाह रह रह कर याद क्यों आता है?



माटी कुदम करेंदी

माटी कुदम करेंदी यार
वाह-वाह माटी दी गुलज़ार।
माटी घोडा, माटी जोडा,
माटी दा असवार।
माटी माटी नूं दौडावे,
माटी दा खडकार।
माटी माटी नूं मारन लग्गी,
माटी दे हथियार।
जिस माटी पर बहुती माटी,
सो माटी हंकार।
माटी बाग़ बग़ीचा माटी,
माटी दी गुलज़ार।
माटी माटी नूं वेखण आई,
माटी दी ए बहार।
हस खेड फिर माटी होवै,
सौंदी पाउं पसार।
बुल्ल्हा एह बुझारत बुज्झें,
तां लाह सिरों भुईं मार।


हिंदी में इसका अर्थ


माटी की उछल-कूद


माटी उछल-कूद रही है मित्र
इस माटी की रौनक़ भी क्या खूब है।
माटी का घोडा है, उस पर माटी का ही झोल है
और माटी का ही सवार है।
माटी को माटी ही दोडा रही है।
माटी का ही कोडा है
और उसकी चटाख आवाज़ भी माटी की है।
माटी माटी को पीट रही है।
उसके हथियार भी माटी के ही हैं।
जिस माटी के पास कुछ अधिक ही माटी है,
उसे व्यर्थ का अहंकार हो जाता है।
यह बाग़-बग़ीचा भी माटी का है,
फूलों की क्यारी भी माटी की है।
माटी ही माटी को देखने आई है,
यह सारी रौनक़ माटी ही ही है।
संसार के भौतिक आनन्द लूटकर (मनुष्य) पुन: माटी हो जाता है।
और पांव पसारकर म्रत्यु की गोद में सो जाता है।
बुल्लेशाह कहता है कि इस पहेली को समझना चाहते हो,
तो सारा बोझ सिर से उतारकर धरती पर पटक दो।




यह काफ़िया हिंद पाकेट की किताब बुल्लेशाह से है। इस किताब को प्रस्तुत किया है डा. हरभजन सिंह और डा. शुएब नदवी जी ने।

4 comments:

महेन said...

दोस्त यह किताब हमतक कैसे पहुंचे? हम तो बहुत दूर अंग्रेज़ों के देश में बैठे हैं? मगर बुल्लेशाह को हमारे बीच लाने के लिये बहुत आभार। और भी कुछ पोस्ट कीजिये न उनका…

शुभम

महेन

रंजू भाटिया said...

माटी माटी नूं वेखण आई,
माटी दी ए बहार।
हस खेड फिर माटी होवै,
सौंदी पाउं पसार।

बहुत सुंदर शुक्रिया इसको यहाँ पढ़वाने के लिए

डॉ .अनुराग said...

शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिये.....

bhuvnesh sharma said...

इसे पढ़ने के बाद लगता है हम काहे इतना बोझा लिये घूम रहे हैं...असल में बोझा कब उतरेगा पता नहीं

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