Tuesday, May 27, 2008

बर्तोल्त ब्रेष्त और आज का समय

मेरा दर्द बर्तोल्त ब्रेष्त की कलम से ।



जो मेज़ पर से गोश्त छीन लेते है

वे संतोष की सीख देते है ।

जिनके लिए पूजा चढाई जानी है

वे त्याग की माँग करते है ।

छककर खा चुकनेवाले भूखों को बताते हैं

महान समय के बारे में, जो कभी आएगा ।

जो साम्राज्य को सर्वनाश के कगार पर ले जा रहे हैं

कहते हैं शासन चलाना बेहद कठिन हैं

आम आदमी के लिए ।


लेखक- बर्तोल्त ब्रेष्त


यह कविता " एकोतरशती बर्तोल्त ब्रेष्त की 101 कवितायें " में से है । अनुवादक : उज्ज्वल भट्टाचार्य जी है। इसका प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। इस किताब में और भी प्यारी प्यारी रचनाऐं है आप पढ सकते है।

Friday, May 23, 2008

लड़का, भूख और ईमानदारी

 भूखा लड़का



एक दोपहरी मैं लंच करके हरदयाल लाइब्रेरी के बाहर खडा था

खाली रिक्शे ढाबे की तरफ दोडे चले जा रहे थे

दो एक प्रेमी जोडे हाथो में टिफिन थामे बरगद के पेड की तरफ चले जा रहे थे

तभी एक सात आठ साल का लडका फटी सी कमीज पहने मेरे पास आकर रुका

एक हाथ बढा बोला अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी है

तभी जी किया कि बोल दू कि चले परे हट ये तुम जैसे बच्चो का रोज का धंधा है

पर दिल नही माना उसने मेरी जुंबा पर हाथ धर दिया

मैने जेब में हाथ डाल दो रुपया का सिक्का निकाल उसके हाथ पर रख दिया

बच्चे का चेहरा फूल की तरह खिल उठा और उसके पैर दोड पडे

मैं फिर से सडक की तरफ दोडती, भागती, रेंगती जिंदगीयों को देखने लगा

सडक किनारे बैठे दर्जी  कपडे सिलने में लगे  थे

चँद मिनट बाद ही वही लडका हाथ में ब्रेड थामे मेरी तरफ चला आ रहा था

पास आकर एक हाथ आगे बढा कर बोला लो अंकल, एकदम मेरा भी एक हाथ आगे बढ गया

देखा मेरे हाथ पर एक रुपया का सिक्का चमक रहा था

मैं एकदम दंग रह गया, कभी चमकते सिक्के को और कभी लडके के चेहरे को देखता

मैं एक रुपया थामे बुत की तरह खडा रहा , और वह ब्रेड खाते खाते चल दिया और मेरी आँखो से ओझल हो गया




यह तुकंबदी एक घटना पर आधारित है जो 1992 के आस पास की है। जब मैं प्रतियोगिता परीक्षाओ की तैयारी कर रहा था और हरदयाल लाइब्ररी पुरानी दिल्ली जाया करता था। वहाँ मैं अक्सर लंच के बाद रोज ही बाहर खडा हो जाया करता था। उस दिन ये लडका आया और बोला कि अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी । मैने उसे दो का सिक्का दे दिया। उसने वो सिक्का लिया और दोड गया। फिर कुछ देर बाद वह आया उसके हाथ में ब्रेड थी और उसने एक का सिक्का मेरे को दे दिया और बगैर कुछ कहे चला गया। उसका एक रुपया वापिस करना मेरे दिल को छू गया। उसको एक रुपये में शायद चार ब्रेड पीस आऐ थे। और वह उसी को पाकर खुश था। रखने को वह बचे एक रुपया को रख सकता था। पर उसने वह रुपया नही रखा। इसी बात ने यह तुकंबदी करने और यह बात सामने लाने को प्रेरित किया।

Wednesday, May 14, 2008

प्यार का जज़्बा, ज़िंदा रखो॥

सांझ का सपना


सांझ का सपना,ज़िंदा रखो।
प्यार का जज़्बा, ज़िंदा रखो॥

मैं-मेरे से, ऊपर उठो।
तू-तेरे से, ऊपर उठो॥

ख़ुदग़र्ज़ी का, झंझट छोडो।
देव्ष ईर्ष्या, जड से उखाडो॥

सब को समझो, एक बराबर।
सब को प्यारो, एक बराबर॥

ओस पडोस का, पक्ष न मारो।
इक दूजे का, हक़ न मारो॥

हिस्से आता, काम कराओ।
साथी का भी, बोझ उठाओ॥

हर प्राणी का, दर्द बंटाओ।
जानें वार कर, सांझ पुगाओ॥

प्यार का जज़्बा, ज़िंदा रखो।
सांझ का सपना, ज़िंदा रखो॥



यह सपना साकार हो आओ हम सब कोशिश करें ।

यह गाना नाट्क "बब्बी गई कोहकाफ" से है। नाट्क के लेखक श्री चरणदास सिंधू जी है। यह नाट्क वाणी प्रकाशन से संपूर्ण नाट्क- डा. चरणदास सिंधू के नाम से प्रकाशित हुआ है । धन्यवाद सहित ।

Monday, May 12, 2008

सआदत हसन मंटो का जन्मदिन और उनकी दो छोटी कहानियाँ

सआदत हसन मंटो का जन्मदिन



कल यानि 11 मई को एक महान लेखक सआदत हसन मंटो का जन्मदिन था। उनके लेखन में एक सच था अपने समय का। ज़िस सच से मुँह चुराना मुमकिन नही है। उनकी याद में दो छोटी छोटी कहानी दे रहा हूँ। उम्मीद है आप साथियों को पंसद आऐगी।

करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए। लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे, कुछ ऐसे भी थे, जिन्होने अपना माल भी मौका पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक्कत पेश आई। उसके पास शक्कर की दो बोरियां थी, जो उसने पंसारी की दुकान से लूटी थी। एक तो वह जूं-तूं रात के अंधेरे में पास वाले कुंए में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा, तो खुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकटठे हो गए। कुंए में रसिसयाँ डाली गई।
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया।
लेकिन वह चंद धंटो के बाद मर गया। दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुंए में से पानी निकाला, तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे।


घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लडकियों में से एक लड्की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया।
रात गुजारकर एक दोस्त ने उस लड्की से पूछा " तुम्हारा नाम क्या है?"
लड्की ने अपना नाम बताया, तो वह भिन्ना गया " हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो।"
लड्की ने जवाब दिया " उसने झूठ बोला था।"
यह सुनकर वह दौडा-दौडा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा - "उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया हैं हमारे ही मज़हब की लड्की थमा दी। चलो , वापस कर आंए।


नोट- जिन प्रकाशनो ने इनकी किताबें प्रकाशित उन्हें मेरी तरफ से धन्यवाद।

गुब्बारे वाला













गुब्बारे वाला


पी-पो करता गुब्बारे वाला हर सुबह गली में आता है
गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर गुब्बारों में हवा भरता जाता है
एक बच्चा अपनी माँ का पल्लू खींचकर तुतला के बतलाता है
दूसरा बच्चा अपने पापा की उंगलियाँ पकड़कर इशारों से समझाता है
कोई माँगे लाल, कोई माँगे पीला, और कोई माँगे नीला
छोटे गुब्बारें का एक रुपया और बड़े का दो रुपया गुब्बारे वाला लेता हैं
गुब्बारें पाते ही बच्चों के चेहरे खुशी से खिल जाते है
मानों जैसे बच्चों चाँद सूरज मिल जाते है
गुब्बारे वाला ऐसे ही गली मोहल्लों में खुशियाँ बाँटता है
और अपने बच्चों के लिए दाल-रोटी भी कमाता फिरता है
काश ऐसा हम सब भी करते
अपने धंधे से पेट भी भरते,
और सबकों खुशियों के रंगीन गुब्बारें भी देते

Wednesday, May 7, 2008

यदि सपने बाजार में बिकते तो तुम कौन सा सपना खरीदते?

एक सुखद रात

शनिवार की रात को लेटे लेटे एक कहानी के बारे में सोच रहा था सोचते सोचते अपने बहुत पुराने लेख(जोकि औरत पर लिखा था जब मैं स्कूल में पढता था) की याद आ गई। फिर लगा उसे ढूढने कि वह किस फाईल में रखा । फ़िर क्या था अलमारी की वह रेक खुली जो सालो से नही खुली थी। जहाँ प्यारी प्यारी यादें बिखरी पडी थी। कुछ मीठी-खठी कविताऐ फाईलो में लगी थी। वही पुरानी बातें डायरी में दर्ज थी। बस फिर क्या था लगा उन्हें पढ्ने, नींद पता नही कहाँ किस देश चली गई। कभी पढ कर हंस देता, कभी पढ कर आँखे गीली हो जाती। कभी आँखे बंद कर उस पल को जीने की कोशिश करने लगता। देखते देखते ही कब सुबह हो गई पता ही नही चला सुबह का एहसास चिडियों की आवाज से हुआ। खैर रात बीत गई। पर यादें, बातें, कविताऐ, मेरे से अभी भी ये सब बाते कर रही है। सोचता हूँ आप सब साथियों को भी शामिल कर लू। तो शुरुआत एक कविता से करता हूँ जो कि शायद अपने स्कूल के दिनो में पढी थी। कविता का नाम हैं - Dream Pedary. लेखक का नाम है- Thamas Lovell Beddoes.


यदि सपने बाजार में बिकते तो तुम कौन सा सपना खरीदते?

किसी सपने की कीमत होती एक क्षणिक सुखद विचार और

किसी की एक हल्की सी आह। आह जो जीवन की

पराकाष्ठा ( ताज मूकुट) से उतरती हैं। और गुलाब की पखुडी

कैसी सुन्दर होती है।

यदि सपने बाजार में बिकते और सपनो का सौदागर

घंटी बजा बजा कर सुखदायक तथा दुखदायी सपने बेचता

तो तुम कौन सा सपना खरीदेते।

पेडो के कुंज की छाया में बनी एक शांत झोपडी का सपना

जो मेरी मृत्यु तक मेरे जीवन के दुखो का निवारण करता।

जीवन के मूकुट के मोती मैं प्रसन्नता के साथ ऐसे

सपने की कीमत मैं दे देता। यदि सपने अपनी इच्छा से

मिलते तो मैं एक शांत कुटिया का सपना खरीदता

जो मेरे दुख के घावों को भली भांति भर देता॥



शुक्रिया लेखक का जिसने हमें एक सुन्दर कविता दी।

नोट- जो भी साथी अपनी राय देना चाहे तो साथ में ये जरुर बताये कि वह क्या खरीदता अगर सपने बाजार में बिकते।

Sunday, May 4, 2008

चलो " मंगू और बिक्कर" की जिंदगी को देखे

नाटक- मंगू और बिक्कर ( 7 मई, मगंल वार शाम 7 बजे, स्थान श्री राम सेंटर, सफदर हाशमी मार्ग, मंडी हाउस दिल्ली)

सरसरी नजर से देखने पर, यह नाटक बूढे माँ-बाप तथा जवान बेटी-बेटों के बारे में दिखेगा। पर इस विषय के साथ मैं ने और कई जरुरी थीम मिलाने की कोशिश की है।

एक इंसान की दूसरे इंसान की तरफ जिम्मेदारी, शहरों की देहात की तरफ जिम्मेदारी-- "मंगू और बिक्कर" बंदे की जिदंगी के बंधनों के साथ जूझने की कोशिश करता है।

पच्चहतर बरसों के रिटाइर्ड मास्टर मंगू राम की शिक्षा अभी अधूरी है। टूटी हुई टाँग ने उसे झकझोर डाला है। मंगू जिदंगी भर की नींद से जाग रहा है। जिंदगी-मौत, शरीर-आत्मा, किस्मत-कोशिश, आजादी-बंधन, अपने-पराए, जैसे मुशिकल लफ्जों के सही मानों की तरफ बढ रहा है।

क्या शहर-निवासी सोहन लाल और ओम प्रकाश ने देहाती मंगू और बिक्रम चंद से ज्यादा तरक्की की है? क्या अमरीकन पीएच.डी. प्रोफेसर ओम प्रकाश के पास अनपढ पहलवान निशान सिंह से अधिक ज्ञान है? ज्यादा सुख है?--- सच्चा ज्ञान क्या होता है? सच्चा सुख किसे कह्ते है?

उम्मीद है,"मंगू और बिक्कर" इन सवालों को आप तक पहुचाँने में कामयाब होगा। और आप अपने आप को, ओस पडोस को, थोडा हट कर, देख सकेंगे।
चरणदास सिद्धू

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